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सोमवार, 17 सितंबर 2012

घृणा के समर्थ साधक


भाइयों, ये कोई नया धर्म नहीं है. सदियों से चला आ रहा है. इस धर्म को माननेवाले सभी संप्रदायों में, सभी पंथों मे, सभी देशों में और सभी ब्लॉग साइट्स में मिल जाएँगे. कोई विशेष अर्हता की आवश्यकता नहीं है इसमें प्रवेश पाने के लिए. इतना महान है ये धर्म कि सबके लिए इसका द्वार सदा खुला है. कोई भी आ कर किसी बड़े व्यक्ति को गालियाँ, किसी विशेष पुस्तक के अर्थ का अनर्थ इत्यादि बड़े आराम से कर सकता है. भले ही ये सत्यसाधक उसविचारधारा को समझते हों या नही, उस पुस्तक को पड़ा  हो या नहीं, 'रंगासियार 'की तरह प्रवचन देना इनका परम कर्तव्य होता है. 
 अपने देश में भी इस धर्म के बहुत सारे संप्रदाय हैं जो आपस में लड़ते रहते हैं. इस्लाम-जनित घृणा धर्म, हिंदू-जनित घृणा धर्म , गोडसे-समर्थक घृणा धर्म इत्यादि का नाम इनमें प्रमुखता से लिया जा सकता है.
अब मैं आता हूँ सनातन धर्म पर, धर्म जिसपर मुझे अभिमान है और धर्म जिसमें मैं जीना और मरना पसंद करूँगा. इस धर्म की एक बड़ी विशेषता है विभिन्न मतों और संप्रदायों का एक साथ बिना वैमनस्व के एक दूसरे का सम्मान करते हुए जीना. जब भी ज़रा सा भी कटुता बढ़ी, श्री रामचरित मानस जैसी पुस्तक हाजिर थी, पुस्तक जिसमे तुलसी दास ने राम को शिव की और शिव को राम की उपासना करते दिखा वैष्णव व शैव के झगड़े को ही समाप्त कर दिया. सनातन धर्म में सहिष्णुता और सहजीविता का प्रतिपादन किया गया है.
वेदांगों (उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण) में सत्य और अहिंसा को बड़ा स्थान दिया गया है. ये 'सत्य' साधारण नहीं अपितु स्वयं स्वैम्भु परमात्मा हैं. अहिंसा कोई बाह्य सिद्धांत नहीं बल्कि अपने आप को उन जानवरों की श्रेणी से उपर उठने का मार्ग है जिनके पास सोंच की शक्ति सीमित है. अरे हिंसा तो किसी भी पशु की प्रवृति होती है, मनुष्य वो होता है जो इससे उपर उठ सके. एक बात और इसे कायरता से न जोड़ें. कायर इसलिए झुके होते हैं क्योंकि वो डरे और हिंसा करने में अक्षम होते हैं. दूसरी ओर विनम्र और अहिंसक इसलिए झुके होते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि हिंसा कमजोर का साधन होता है. ये सिर्फ़ किताबों में पढ़ी जानेवाली बातें नहीं थीं, अपितु इन्हे जीवन के हर एक भाग, उतार-चढ़ाव में उतारा जाना ही उन ऋषि-गण का संदेश था.
बात बुद्ध की हो तो उन्होने अहिंसा को धर्म माना था. ये उस कर्मकांड और ब्राह्मानत्व के प्रति सिंघनाद था जिसकी रोटी समाज का सीमित वर्ग सदियों से वैदिक धर्म के नाम पर ख़ाता आ रहा था. विवेकानंद ने बुद्ध को सबसे बड़े योद्धा की संज्ञा दी है. सोचिए, एक अहिंसा का प्रतिपादक और योद्धा( युद्ध लड़नेवाला) !!! इतने बड़े योद्धा कि अपनी हत्या का प्रयास करनेवाले देवदत्त को हर बार क्षमा किया.

गाँधी ने इसी अहिंसा को अपनाया था. वे लोगो के मानसिक स्तर को बदलना चाहते थे. वो जानते थे कि यदि संपूर्ण समाज अहिंसक हो जाए तो उसके आत्मबल से अंग्रेज क्या विश्व की कोई भी शक्ति भी सामने टिक नहीं पाती. यहाँ तक कि वो अँग्रेज़ों के विचार भी परिवर्तित करना चाहते थे, उनके तम को मारना चाहते थे, न की उन्हे. उनके बार-बार आंदोलन वापस लेने का कारण यही था कि जनता का आत्मबल हिंसक प्रवृति के कारण कम पड़ जाता था.

वैचारिक शक्तियों में धर्मांध उन्हे कभी पीछे नहीं कर सकते थे और ना ही धर्म के मामले में. शायद इसी खीस की परिणति उनकी हत्या ���ें हुई. कायरता की पराकाष्ठा पर हो चुकी थी. बहुत मन-गर्हन्त आरोप लगाए जाते हैं, बेसिरपैर, ऐसे आरोप जिनका आधार घृनावलंबी एक पथभ्रष्ट्र की ज़ोर-तोड़ कर बनाई गयी बातों को और उसकी पुस्तक को देते हैं. सत्य सदा विनम्र और निश्चल होता है. ज़रा इस पुस्तकांश की बातों को तो देखें, हसी आती है कि ये इतिहास के सर्वमान्य सत्य को भी झुठला कर कितने ढीठ से खड़े हैं. ये उन पटेल, सुभाष, भगत सिंह का नाम उनके विरुद्ध लाते हैं जो कि कभी थे ही नहीं. विचारों में तनिक विरोध होते हुए भी उनमे एक दूसरे के प्रति सम्मान था, प्रेम था. और तो और इन सारे महापुरुषों ने धर्मांधता और कट्टरता का प्रखर विरोध किया था. हिंदुत्व का विरोध किया था, हिंदू धर्म का नहीं. क्या गोडसे सुभाष से महान था ? क्या गोडसे पटेल से महान था ? क्या गोडसे तिलक से महान था ? और क्या गोडसे अंबेडकर और भगत सिंह से महान था ? जबाब दे. अगर नहीं तो आप इनकी लेखनी और इनके वक्तव्य को छोड़ उस गोडसे को क्यूँ पढ़ते हैं. इनमें कहीं गाँधी से घृणा नहीं सिखाई जाती. और अगर आपका जबाब हाँ है तो एक बात साफ है कि आपको देश के प्रति त्याग करनेवाले की इज़्ज़त नहीं.

इसी हिंदुत्व व इस्लामीकता ने देश को उस समय झकझोड़ा जिस समय सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी एकता की
. मुस्लिम डर रहे थे कि उन्हे आज़ाद हिन्दुस्तान में हिंदुओं के अधीन रहना पड़ेगा. इस बात की पुष्टि कुछ लोगों के वक्तव्य ने और कर दी-आदर मुसलमानों को हिन्दुस्तान में रहना है तो हिंदुओं के अधीन रहना पड़ेगा, उनके रीति-रिवाज मानने पड़ेंगे. पहले से ही अँग्रेज़ों के द्वारा अलग हो रहे मुस्लिम और अलग हो गये. उधर भी सिखाया गया कि हिंदू तुम्हे जीने नही देंगे और अगर पहले ऐसा राज चाहिए तो अलग मुल्क बनाना पड़ेगा. विभाजन एक दिन की कहानी नहीं थी. विभाजन था सांप्रदायिक संघर्ष की परिणति, विभाजन था गाँधी की असफलता हिंदू-मुस्लिम को एक करने में ( धर्मान्धों के कारण), विभाजन था तथाकथित धार्मिक नेताओं की मूर्खता जिन्होनें कभी धर्म का मर्म समझा ही नहीं, और विभाजन था अँग्रेज़ों की 'फुट डालो और शासन करो; नीति का परिणाम किसके भुक्तभोगी आज भी हम बने जा रहे हैं.  

अरे घृणा के साधकों, जब भगवान एक है तो एकत्व लाने का प्रयत्न्न करो, क्यों विभेद बढ़ाते हो. कहोगे-हम तो कुछ नहीं करते, बुरा तो वो सामनेवाला है. अगर मान भी लो इस बात को, तो उनके विचार बदल कर दिखाओ, न ली नफ़रत फैलाओ. नफ़रत सिर्फ़ नफ़रत को जन्म दे सकती है और ये कोई समाधान नहीं है शांति स्थापित करने का.  

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