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सोमवार, 17 सितंबर 2012

बिहार और यू.पी. ही पिछड़े क्यूं


बड़ा ही जटिल प्रश्न है कि आखिर क्यों उत्तर प्रदेश और बिहार विकास की दौड़ में पिछड़ गये. गंगा-यमुना से सिंचित विश्व की सबसे ज्यादा उर्वर मिट्टी; राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, कबीर,सुफ़ीओं आदि के संस्कारों से सजी संस्कृति; और कभी अखिल भारत की राजधानी रही धरती.......क्या हो गया आखिर ?

संक्षेप में कहूँ तो सबसे पहला कारण दिखता है समाज में जड़ तक समाया जातिवाद. अब प्रश्न यह उठता है कि जातिवाद यहीं ज्यादा क्यों ? कारण यह है कि ब्राहमणवादी सत्ता का केन्द्र होने के नाते (वाराणसी इत्यादि) वर्ण व्यवस्था और उसकी अनुगामिनी जाती-प्रथा का सबसे ज्यादा प्रभाव इन स्थानों पर पड़ना स्वभाविक था, है. जाति इतनी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी कि स्वयं वर्ण या जाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि) भी उपजाति में विभक्त हो गयी और उनमें परस्पर वैवाहिक सम्बंध भी कमने लगे. हर उपजाति के अपने नेता, अपने-अपने स्वार्थ कटुता की नयी उँचाइओ को को छुने लगे. इसका असर आज भी है. इतनी ज्यादा जटिल सामाजिक व्यवस्था कहीं नहीं है. दक्षिण भारत में दो ही टुकड़े हैं समाज के मूलतः-ब्राह्मण और अब्राह्मण. पंजाब, हरियाणा, हिमाचल इत्यादि में सिखों का प्रभाव है, शायद इसलिये वहाँ इसका प्रभाव कम है.

दूसरा कारण था ईस्ट इंडिया कंपनी. संयुक्त बंगाल-बिहार-ओडिशा की दीवानी का अधिकार मिला था कंपनी को. यहीं से शुरु हुआ शोषण का सिलसिला. नबाब भी कर वसूलता था और कंपनी भी. सारे उद्योग-धंधे बंद हो गये क्योंकि देशी व्यापारिओं को हर जगह महसूल देना पड़ता था जबकि अंग्रेज़ इससे परे थे. यह वही समय था जब भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अकाल पड़ा था और लाखों लोग भूख से मारे गये थे. कभी कुटीर उद्योग का बड़ा केन्द्र रहा यह क्षेत्र कभी भी इससे उबर नहीं पाया.

तीसरा कारण है संसाधनों का विकेन्द्रीकरण. संसाधन से धनी बिहार के संसाधन बिहार में ही नहीं पाये. कलकत्ता, मुम्बई आदि से यहाँ के संसाधनों का संचालन होने लगा, आज भी झारखण्ड से हो रहा है.  देश में कोई भी चीज़, कोई भी संसाधन कहीं पर भी होती हो, इकट्ठा तो एक ही जगह होनी थी चाहे कलकत्ता में या फिर मुंबई में. विदेशी व्यापार जो चलाना था ईस्ट इंडिया कंपनी को. यहीं से शोषण शुरू हुआ बिहार जैसे संपन्न प्रदेशों का. कलकत्ता और मुंबई में रहनेवाले अंग्रेज और व्यापारी आमीर और अमीर होते चले गये, मुंबई महानगर बन गया. बिहार पिछड़ गया. ये आंतरिक उपनिवेशवाद का नया पहलू था. ये आज भी बदस्तूर जारी है. जैसा कि मैने पहले कहा कि खनिज यहाँ के, खनिज निकालनेवाले यहाँ के, पर व्यापारी बाहर के, बाज़ार बाहर के. संपन्न कौन होता ? 

यह माना जाता है कि आज़ादी के बाद बिहार और उत्तर प्रदेश को एक मानक  चिन्ह बना दिया गया था अन्य राज्यों के लिये जो ज्यादा पिछड़े थे. शायद यह प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि पर  दिए विशेष ध्यान का असर था .  बाद में यही देखकर राज्य को केन्द्र से सहायता मिलनी कम हो गयी ( मैने इसे फ्रंटलाइन में पढ़ा था कभी). अन्य राज्य बढते गये,बिहार पिछड़ता गया.

भारी उद्योग भी कम खोले गये. जो भी केन्द्र सरकार ने खोले, अब अधिकांशतः सफेद हाथी बन चुके हैं, या फिर बंद हो गये. केन्द्र ने फिर कभी ध्यान नहीं दिया. अर्थव्यवस्था सिर्फ कृषि पर आधारित रह गयी, उसपर भी जब बिहार राज्य की आधे से ज्यादा कृषि-योग्य भूमि बाढ के चपेट में हो. हरित क्रांति के समय भी यह क्षेत्र उपेक्षित रहा था. सिंचाई की व्यवस्था बिल्कुल थप थी, आज भी है.विभाजन के बाद बिहार कृषि -प्रधान ही रह गया है . उसपर भी राज्य की अधिकांश भूमि हर साल जल-प्लावन का शिकार बनती है. हिमालय के शिखरों से निकली नदिओं के उत्पात का कोई तोड़ अभी तक ढूंढा न जा सका है . उसपर भी केंद्र की इस मसले पर उदासीनता . नेपाल के इस मामले में शामिल होने से बिहार सरकार स्वयं कुछ नहीं कर सकती . दुःख की बात यह है कि इतने जल स्रोतों के होने के बावजूद इसका उपयोग पनबिजली बनाने में करना एक घाटे का सौदा है क्योंकि बिहार समतली क्षेत्र है.
एक और बाढ़ आती है तो दक्षिण  बिहार सूखे से ग्रस्त रहता है . ऊपर से दक्षिण बिहार में सिंचाई की सुविधाएं भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं .  पर हाल फिलहाल में कुछ सुधार हुये हैं. इस साल हुई 250 mt उपज के लिये इसी क्षेत्र को उत्तरदायी माना जा रहा है.
नक्सल हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में से हैं यह राज्य. लगभग पूरा बिहार और उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर इलाके पूरी तरह से इस समस्या से ग्रसित हैं.

असमर्थ राजनीति भी एक अहम कारण है जिसका उदाहरण देने की जरूरत नहीं है.
लोगों के मुंह से सुना है कि सारी ट्रेन बिहार को ही जाती हैं. बिल्कुल गलत है. उत्तर बिहार को अगर ट्रेन की संख्या से तौलें, तो सम्पूर्ण भारत के निम्नतमों में शुमार होगा. दूसरी बात ट्रेन जरूरी भी है क्योंकि नक्सल प्रभावित क्षेत्र अभी भी कटे हैं. ऐसा भी नहीं की ट्रेन सारी बिहार से खोली गयीं बिहार के मंत्रिओं के द्वारा. अब कोलकाता वाली ट्रेन तो बिहार होकर ही जायेगी न. कुछ मुगलसराय वाली ट्रेन को थोड़ा आगे बढ़ा गया.

लोगों का आरोप है कि कुछ भी होता है और सारे बिहारी एकजुट हो जाते हैं. यह सरासर मिथ्या है. मैने आजतक बिहार के संगठन कम ही देखें हैं. बी एच यू से पढ़ा हूँ. बहुत सारे राज्यों के संघ थे, पर बिहार बिल्कुल नहीं. हाँ, ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कुर्मी आदि के संगठन मिल जायेंगे.

बिहार के लोग कानून बड़े प्यार से तोड़ते हैं . मगर कमोबेश यही स्थिति सारे देश की है . एक और मिथक बन सा गया है कि बिहार से ही सबसे ज्यादा आईएएस आईपीएस  हर साल निकलते हैं . यह आत्मप्रवंचना है. ऐसे दावे करनेवालों से मुझे यही कहना है कि आप  upsc की वेबसाइट खोल कर देख लें .इस क्षेत्र में दक्षिण भारत के लोग काफी आगे हैं . बिहार की शिक्षा का  कबाड़ा कर दिया अंधाधुंध खुले घटिया महाविद्यालयों ने . मानों डिग्री मुफ्त में बंट रही हो . मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता जब ऐसे ही किसी कॉलेज से मास्टर डिग्री लिए को दिल्ली की गलियों में टमाटर बेचते देखता हूँ . कहने को तो पीएचडी भी कर लिया , पर दसवी कक्षा के बच्चों को पढ़ाने की कूवत भी नहीं . 

अब स्थिति पहले से काफी हद तक सुधरी  है . नीतीश कुमार के परिश्रम को नकारा  नहीं जा सकता . अपराध , किडनेपिंग काफी कम हो चुके हैं . जिस जगह लोग शाम के सात बजे निकलते नहीं थे और मार्किट भी  सात बजते ही बंद हो जाते थे , वहां  अब ठाठ से घूमते हैं .नौकरशाही पर सरकार का नियंत्रण बना हुआ है . डॉक्टर , शिक्षक अदि अब दिन भर ड्यूटी बजाते हैं . नीतीश का विरोध भी हुआ है , मगर वह ज्यादातर राजनितिक है और लोगों की इस भावना का प्रतीक है कि और विकास क्यों नहीं हुआ . खैर , नितीश रहें न रहें , हारें या जीतें ,  किसी  भी पार्टी की सरकार बने , मुद्दा विकास ही रहेगा . यह एक शुभ संकेत है . 

बिहार का विकास हो , अन्य  राज्यों भी आगे बढ़ें . देश की  सर्वांगीण  प्रगति हो .

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