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सोमवार, 17 सितंबर 2012

दूसरे का धर्म


बड़ी ही बुरी परिस्थिति से गुजर रहा है हमारा देश. असम हो या मुंबई, बंगलोर हो या दिल्ली, कहीं से भी समाचार अच्छे नहीं. सहिष्णुता और सहजीविता की भावना मानो कि ख़त्म ही हो गयी हो. समाज टुकड़ों में बँटता जा रहा है. और हम ! हाँ हम, अखाड़े में भिड़ते दो दलों को देख, क्षमा करें, ग्लॅडियेटर को देख तालियाँ पीटते, फब्तियाँ कसते मज़े ले रहे हैं.
हमें औरों की बुराइयाँ दिखती हैं, अपनी तो देखना भी नहीं चाहते. हमें दूसरा धर्म लिंग-पूजक लगता है भले ही इसका प्रतीकात्मक अर्थ पता नहीं. हमें दूसरा धर्म बुतपरस्त दिखता है, भले ही इसका लक्ष्य पता नहीं. और हमें पर-धर्म हिंसा को बढ़ावा देनेवाला जेहादी लगता है, भले ही हमने मूल पुस्तक मूल भाषा में ना पढ़ी हो. हम एक दूसरे के ग्रंथों को, एक दूसरे के आराध्यों को गालियाँ देते हैं, भले ही सबका मालिक एक हो. गालियाँ हमारे ही संस्कारों को तो दर्शाती हैं और एक तरह से ये हमारी हार को लक्षित करती हैं.
ग्रंथ एक होते हैं, व्याख्याएँ अनेक. निर्भर करता है यह उस व्यक्ति पर कि किस सोंच, किस परिस्थिति में वह अद्ध्ययन कर रहा है. रावण से बड़ा विद्वान था कोई ? नहीं. क्या किया उसने. वेदों की ग़लत व्याख्या व विवेचना की. उसी वेद को राम ने भी पढ़ा और भगवान कहलाए, और उसी वेद को पढ़कर रावण दुष्ट कहलाया. एक बात और, वो रावण इतना विद्वान था कि राम ने कहा था-लक्ष्मण रावण से भी सीख लो. यही हो रहा है आजकल, मूल संस्कृत में वेद पढ़े नहीं और जाकिर नायक जैसे लोग ग़लत व्याख्या करने लगे. मूल अरबी में क़ुरआन पढ़ा नहीं, और मनचाहा हिन्दी या उर्दू अनुवाद जो की इंटरनेट पर आसानी से मिलता है, पढ़कर क़ुरआन बाँचने लगे. सदभावना तो नहीं बढ़ सकती इससे ना. खुद के घर साफ नहीं और चले हैं हम पड़ोसी की गंदगी देखने. दिनकर ने ठीक ही लिखा है:
अपनी ग़लती नहीं सूझती, अजब जगत का हाल |
निज माथे पर नहीं सूझता सच है अपना भाल ||
वसुधैव कुटुम्बकम को भूल गये हैं हम. बस आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चलता रहता है. इस अंडे-मुर्गी की पहेली का कोई अंत नहीं. स्वामी विवेकानंद ने वेदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामिक शरीर की कल्पना की थी. इस बात को कोई याद नहीं करता या नहीं करना चाहता. दारा शिकोह ने वेदों का फ़ारसी में अनुवाद किया था ताकि लोग पढ़ सकें, इसे भी लोग भूल चुके हैं. याद आता है हमें ग़ज़नवी, गोरी, चंगेज ख़ान. क्या सकारात्मक सोंच है हमारी !
 आज़ादी की लड़ाई में मौलाना आज़ाद को भूल गये जो इस्लाम के बहुत बड़े जानकार थे. उन्होनें तो झगड़ना नहीं सिखाया जबकि इसी क़ुरआन को उन्होनें भी पढ़ा था. बादशाह ख़ान को भूल गये, अशफ़ाकउल्ला ख़ान, जाकिर हुसैन तो दिमाग़ में ही नहीं रहते. क़ुरआन इनकी भी पुस्तक थी.

हम और पढ़े ! कोर्स की चार किताबें और कुछ डिग्रियाँ ले लेने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता. हम well-informed हैं, well-educated नहीं. क्योंकि सही शिक्षा में मानवता का पुट होता है, प्रेम का रस होता है, नफ़रत की मिर्ची नहीं. दंगे ज़्यादातर वहाँ होते हैं जहाँ ग़रीबी और अशिक्षा का डेरा होता है. कोई सच्चा संत कभी दंगे की बात नहीं करता. और विडंबना भी देखिए, दंगे में पिसने वाले यही ग़रीब और अशिक्षित लोग होते हैं जिनका सबसे बड़ा धर्म भूख होती है.
एक अनुरोध है अपने हिंदू और मुस्लिम भाईओ से. एक दूसरे के धर्म पर फब्तियाँ ना कसें. एक ऐसा माहौल बनाएँ कि लगे कि वैमनस्व था ही नही. एक बीड़ा उठाएँ कि अपने-अपने धर्म की कुरूतीओं को दूर करना है और एक दूसरे का सम्मान करते हुए देश और समाज को विकसित करना है.
धर्म के नाम पर युद्ध तो मध्ययुगीन मानसिकता का द्योतक है, देश और समाज का कल्याण कैसे हो, इसपर बहस होनी चाहिए. धर्म व्यक्तिसूचक शब्द है, इसे व्यक्ति-विशेष पर ही छोड़ दें. मार्क्स ने धर्म को अफ़ीम की संज्ञा दी थी और भगत सिंह ने इसी को अपनाया था. निश्चय ही उनका तात्पर्य समाज-विशेष के धर्म से था, न की किसी एक मनुष्य के. 

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