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सोमवार, 17 सितंबर 2012

अपने ही देश में घुसपैठिए!


एक बार फिर से अपमान. बिहारी घुसपैठिए हैं ? क्या अपने ही देश में यही सुनना बाकी रह गया था ? और क्या मराठी मानुष का ही सिर्फ़ है महाराष्ट्र ? संविधान-प्रदत्त मौलिक अधिकारों का खुले-आम हनन हो रहा है और अपराधी, क़ानून तोड़नेवाले सरेआम सड़कों पर नफ़रत का नंगा नाच कर रहे हैं. सरकार से उपर हैं कुछ लोग यहाँ, तब भी जंगल राज कहीं दूर बिहार में है ? इन असामाजिक तत्वों को जनसमर्थन प्राप्त है महाराष्ट्र में, फिर भी जाहिल लोग तो बिहार के ही हैं, होते हैं, क्यों ?

स्थानीय नेता कहते हैं कि इन यू पी, बिहार के भाइयों ने उनका रोज़गार छीना है. क्यों भाई, छीना कैसे, ये उनका हक है. और तो प्रतिस्पर्धा की बात है कि स्थानीय लोगों से आगे निकले. ज़्यादा काम किया, अच्छा काम किया, सस्ते में भूखे पेट रहकर काम किया.

मुंबई सिर्फ़ मराठी की नहीं. देश की आर्थिक राजधानी है ये. कोयला होता है बिहार-झारखंड में, मुख्य कार्यालय है कोलकाता में, और बोली और बिक्री लगती है मुंबई में. यही कहानी लौह-अयस्क और अन्य खनिज पदार्थों के साथ भी मिला जुला कर लागू होती है. क्या बिहारीओं ने कभी कहा कि कार्यालय और बाज़ार बिहार में लाओ ? नहीं, क्योंकि वो जानते हैं कि इस संपदा पर संपूर्ण देश का हक है. यहीं स्टील बनाकर टाटा मुंबई में धन अर्जित करते हैं, ताज होटल बनाकर मुंबई सुंदरता बढ़ाते हैं. इसपर भी कहनेवाले कहते हैं कि बिहारी मुंबई को गंदा कर रहे हैं.

बिहार में कभी " बिहारी " भावना थी ही नहीं. लोगों के लिए तो संपूर्ण देश ही अपना था, समान था. सदियों तक यहीं से तो मौरयों और गुप्तों ने संपूर्ण देश को एक बनाए रखा था. देश में दिल्ली भी थी, पुणे भी था और कश्मीर भी . अशोक के शिलालेख इसके जीवंत गवाह हैं. पूरे देश से लोग पाटलिपुत्र आते थे कभी व्यापार के सिलसिले में और कभी काम की तलाश में. कितने तो यहीं के होकर रह गये. पर यहाँ के लोगों ने तो उन्हें कभी दूसरी नज़र से नहीं देखा. ये कहानी तब की है जब भारतवर्ष के इस भूभाग में इतनी समृद्धि थी कि मेगास्थीनीज ने पाटलिपुत्र को विश्व का सर्वाधिक समृद्धशाली नगर की संज्ञा दी थी. आज लोग कहते हैं कि महाराष्ट्र ने विकास किया है, यही उनकी ग़लती है. यही वो ग़लती है, यही वो कारण है कि बिहारी उनके यहाँ आते हैं.

मैं पूछता हूँ बिहारी लोगों को भगानेवालों से-क्या आप लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ महाराष्ट्र तक ही सीमित हो? मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में क्या आप लोग नहीं बसते हो? सिंधिया ग्वालियर में, पेशवा बाजीराव अंतिम कानपुर व बनारस में रानी लक्ष्मीबाई झाँसी में, होलकर गुजरात में........क्या आपने नहीं पढ़ा है इतिहास में ? इतिहास को छोड़िए, वर्तमान में झाँकिए क्या इन जगहों पर बसने वाले मराठी मानुष और मूल निवासी के बीच अब कोई सांस्कृतिक विभेद कर पाएँगे आप ? पानीपत के तृतीय युद्धोपरांत कितने घायल मराठा वहीं पंजाब में बस गये थे, कोई हिसाब है ? पंजाबिओं ने तो कभी उन्हें नहीं भगाया.

कुछ मराठी मित्रों का कहना है कि इन भैय्यो में तमीज़ नहीं, संस्कार नहीं, रहने का ढंग नहीं. मैं कहता हूँ कि आप अपने स्तर से क्यों देखते हैं. महाराष्ट्र के ग़रीबी रेखा से नीचे बसर कर रहे लोगों से उनका मूल्यांकन कीजिए, कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं दिखेगा. ये संस्कार, रहने का ढंग शिक्षा से आते हैं. इसमे क्या ��िहारी और क्या पंजाबी ? और ऐसा भी नहीं कि ये बिहार-यू पी के मजदूर संस्कार से रहित होते हैं. ज़रा देश से बाहर निकल कर देखिए, मौरीसस, सूरीनाम, फिजी, त्रिनिनाद इत्यादि देश इन्हीं मजदूरों की कर्मठता का गुणगान करते नज़र आएँगे.

सोचिए ज़रा कि इतनी खनिज संपदा के बावजूद बिहार पिछड़ा क्यूँ रहा. एक जबाब सामने आता है-गंदी राजनीति. सही है. पर एक पहलू पर ध्यान नहीं जाता. एक परंपरा जो अंग्रेज़ों ने चलाई थी- संसाधनों का केंद्रीकरण. देश में कोई भी चीज़, कोई भी संसाधन कहीं पर भी होती हो, इकट्ठा तो एक ही जगह होनी थी चाहे कलकत्ता में या फिर मुंबई में. विदेशी व्यापार जो चलाना था ईस्ट इंडिया कंपनी को. यहीं से शोषण शुरू हुआ बिहार जैसे संपन्न प्रदेशों का. कलकत्ता और मुंबई में रहनेवाले अंग्रेज और व्यापारी आमीर और अमीर होते चले गये, मुंबई महानगर बन गया. बिहार पिछड़ गया. ये आंतरिक उपनिवेशवाद का नया पहलू था. ये आज भी बदस्तूर जारी है. जैसा कि मैने पहले कहा कि खनिज यहाँ के, खनिज निकालनेवाले यहाँ के, पर व्यापारी बाहर के, बाज़ार बाहर के. संपन्न कौन होता ? स्टील बनानेवाले टाटा रहते तो मुंबई में ही हैं ना.

बिहार सचमुच विकास कर रहा है, करेगा ? हाल में मैं हरियाणा गया था रिसर्च के सिलसिले में. कुछ लोगों ने बताया कि इसबार फसल काटने के लिए मजदूर नहीं मिल रहे थे. स्थानीय मजदूर बहुत आनाकानी करते हैं और पैसे भी ज़्यादा माँगते हैं. जी हाँ, ये बिहारी मजदूरों के वापस स्वप्रदेश लौटने का असर था. 

अंत में, केंद्र सरकार और न्यायपालिका को इस तरह के व्यक्तव्यों पर कार्यवाही करनी चाहिए. नफ़रत के सौदागर ठाकरे जैसे लोग किसी के सगे नहीं होते. और अगर इसी तरह से इन्हें तुष्ट किया गया तो वो दिन दूर नहीं ,जिस दिन हिंसा की ज्वाला भड़क उठेगी. समानांतर सरकार चलानेवाले ये लोग वैसे भी संविधान की मूल भावना का उल्लंघन कर रहे है.

पता नहीं लोग कब समझेंगे कि वो एक भारतीय पहले हैं, बाद में मराठी, पंजाबी, तमिल, तेलगु, कन्नड़ या फिर बिहारी.

नोटः मैने ये लेख किसी वर्ग-विशेष से दुर्भावग्रसित हो नहीं लिखा है. 
धन्यवाद.

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