मैं गोलियाँ बेचता
हूँ, गोलियाँ, बंदूक वाली नहीं, सपनों की. तरह-तरह के रंग-बिरंगे अच्छे
लगनेवाले सपनों की, वो भी बिल्कुल मुफ्त. पूछोगे मुफ्त क्यों ? मैं कहूँगा
कि भई तुम्हारे सपने से मुझे भी सुकून मिलता है. मैं भी नये जोश और ताजगी
से भर उठता हूँ. फिर पूछोगे कि यह कैसे होता है? भई, कहानी लम्बी है, छोटी
कर सुनाता हूँ.
मैने कईयों को सपने दिखाये हैं. लोग कहते
हैं कि सपने देखो, तभी आगे बढोगे. यही सोंचकर मैने एक निर्धन को सपना
दिखाया धनवान होने का. दुनिया आज उसे एक बड़े बिजनेसमैन के रूप में जानती
है. तुम्हारे पड़ोस के मटरु को भी यही सपना दिखाया था. पर उस मुए ने शायद
मुफ्त देखकर ज्यादा गोलियाँ खा लीं. अभी तक सपने में ही पड़ा है.
जिसे जैसा चाहिये, वैसा ही देता हूँ.
हिन्दू को मुसलमान की और मुसलमान को हिन्दू की गोलियाँ देता हूँ. सवर्ण को
आरक्षण की और अवर्ण को हुये अत्याचार की गोलियाँ देते मुझे बड़ा सुकून
मिलता है. नेताओं को कुर्सी की और मीडिया को आकर्षित करनेवाली गोलियाँ पसंद
हैं.
कौन कहता है कि गधे नहीं सोंचते, सपने
नहीं देखते. मेरी सबसे ज्यादा गोलियों की खपत गधे ही करते हैं. आसपास की
घटनाओं को देखते हुये भी निर्विकार भाव से जुगाली करनेवाले गधे सदिओं से
मेरे सर्वप्रिय ग्राहक रहे हैं, आज भी हैं. अन्धे भी स्वप्न देखते है, पर
थोड़े अजीब से. मेरी स्वप्न गोलियाँ उन्हें ऐसी दुनियाँ में ले जाती हैं
जहाँ हर सच के पीछे उन्हे झूठ दिखाई देता है और वह झूठ कुछ समयोपरान्त सच
में तब्दील हो जाता है. ऐसी कितनी गोलियाँ मैने कितने अंध-देश/ धर्म/
सम्प्रदाय.....भक्तों और छद्म-धर्मनिरपेक्षों को बेचीं, अब तो मुझे याद भी
नहीं. पर मुझे इस बात का दुख है कि मैं कुछ देशभक्तों और निरपेक्षों को
अपनी इच्छानुसार गोलियाँ नहीं खिला पाया.
एक समझदार मिल गया था रास्ते में. मुझे
कुछ-कुछ समझने सा लगा था. आव देखा न ताव, मैने उसे ऐसी गोली दी कि वो अब तक
चुप है. ये समझदार लोग भी ना...उफ ! सारा बिजनेस ही ठप्प कर देंगे. एक
समझदार भला ऐसा भी था जिसने मुझे ही अपने रंग में रंग दिया. मुझे ही
गोलियाँ देता और बंटवाता. मारा गया बेचारा.
कुछ लोगों को बासी, पुरानी एक्सपाइर्ड
गोलियाँ ही पसंद आती हैं. मैं उन्हें नई कोटिंग कर नये पॅकेट में डाल कर
उन्हें खिलाता हूँ. ये लोग अक्सर गड़े मुर्दे उखाड़ते नजर आते हैं इतिहास
की कब्रगाह में. देखो मुझे दोष न देना. कोटिंग से मुझे याद आया कि कई बार
ऐसा होता है कि गोलियाँ कम पड़ने लगती हैं किसी-किसी के लिये. आपातकालीन
व्यवस्था भी तैयार रहती है. किसी पर हरे तो किसी पर लाल कोट कर छितरा दिया
करता हूँ.
ऐसा नहीं है कि गोलियों का साइड एफेक्ट
नहीं होता. कभी-कभी अधिक मात्रा लेने से या अनुपयुक्त वातावरण के प्रभाव
से, गलत गोलियाँ खा लेने से और या फिर अलग-अलग गोलियाँ एक साथ ले लेने से
रिएक्सन हो ही जाता है. एक गधे को भौंकने की बीमारी लग गई. दो अलग-अलग
गोलियाँ ले ली थीं. इलाज तो नहीं हुआ पर जनाब आजकल चिड़ियाघर की शोभा बढ़ा
रहे हैं. सुना है कि गधों के न भौंकने के लिये कानून में संशोधन पर विचार
हो रहा है. बेचारी जनता और उसका भौंकना सोशियल मीडिया पर.
कहोगे कितना कमीना हूँ मैं. कितना गिरा
हूँ मैं. इतना गिरा कि तुम्हें ही गिराता हूँ. मारने आते हो. पिंजरे में
कैद कर देना चाहते हो. उफ! मैने दिमाग बंद करने की गोली क्यूं नहीं बनाई ?
क्यूं ऐसा होता है कि तुम मेरी सुनना बंद कर देते हो ? मैं तो बस सपने
दिखाता हूँ, करते तो तुम्ही हो.
...........ठीक समझा तुमने. मैं तुम्हारा ही दिल हूँ. मैं ही तुम्हें सपने दिखाता हूँ........................मेरे को क्या, तुम बर्बाद हो या आबाद. दिमाग तो है न तुम्हारे पास.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें