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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

चींटियाँ

इस दीवार में दरारें हैं
कटी फटी बेतरतीब सी।
एक सीध से उनमे आती-जाती-खोदती
चींटियों की कतारें हैं।
उस नन्हे पौधे को एक दिन
दरख़्त बनना है।
जम आई मिट्टी पर
फैलती सिकुड़ती उसकी जड़ों को
चींटियों की लाश तक से नमी सोखना है।
एक घोसला भी दिखने लगा है।
चींटियों को चुगती एक चिड़ी नजर आई।
उसके उड़ते ही बड़ी चींटियों का रेला
छोटी नवजात चिड़ी की चाह में,
बिना सीध-असीध की परवाह किये
घोसले की ओर बढ़ने लगा है।
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इन दरारों से झाँकने पर अब
किसी पुराकालीन दीवार के अवशेष मिलते हैं।
उस दरख़्त की जड़ों में अब
अनेक प्रकार के जीव रहते हैं।
शाखाओं पर पक्षी का डेरा है।
हाँ , उस कभी शांत -स्थिर दीवार पर अब
अराजक जंगल का बसेरा है।
अब सिर्फ चींटियाँ ही नहीं रहतीं।
चींटीखोरों का कुनबा बसता है।
और चींटियाँ का सीधा प्रवाह अनुशासन से नहीं ,
उन चींटीखोरों के डर से सरकता है।

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