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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

रिसर्च पालिसी



रूस ( तब का USSR)में कभी एक वैज्ञानिक हुआ था। नाम था लयसेंको(Trofim Lysenko) । जनाब बायोलॉजिस्ट और अग्रोनॉमिस्ट थे। इनकी खोजी तकनीक आज भी vernalisation के नाम से जानी और पढ़ाई जाती है ( ठन्डे तापमान के प्रभाव से फ्लोवेरिंग पीरियड बढ़ जाता है और इसके कारण ग्रेन फिलिंग अधिक होती है। फलतः उपज में वृद्धि होती है ) । शुरुआत में इस तकनीक से बहुत लाभ मिला ( लाभ या प्रोपेगंडा ?) । कृषक पृष्ठभूमि से आते थे और इस पृष्ठभूमि का लाभ उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन के रूप में मिला । जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं वह समझ सकते हैं कि किसानो के समर्थन की कितनी जरुरत कम्युनिस्ट पार्टी को थी। दरअसल यह पार्टी किसानो को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रही थी। खैर, स्टालिन की छत्रछाया में लयसेंको देश के सर्वोच्च वैज्ञानिक पद तक पहुंचे। कहानी अब शुरू होती है।


लयसेंको ग्रेगोर मेडल ( फादर ऑफ़ जेनेटिक्स) के प्रबल आलोचक थे । इन्होंने एक अपना सिद्धांत खड़ा किया और उन सभी वैज्ञानिकों को जो मेंडल के पक्ष में थे , चुन चुनकर या तो कारावास पहुंचा दिया या फिर मरवा दिया। सोवियत संघ में अब केवल वही बायोलॉजिकल रिसर्च चल सकते थे जो सरकार की नीतियों के अनुरूप हों , वो सरकार की नीतियां जो गरीबोन्मुखी और रोजगारपरक थीं ।

जब तक स्टालिन रहा , लयसेंको की आलोचना राष्ट्रद्रोह थी। ख्रुश्चेव के हटने के बाद पहली बार प्रस्ताव पारित कर वैज्ञानिक समुदाय ने लयसेंको की आलोचना की और साफ़ साफ़ कहा कि रूस की नीतियों के कारण आज दूसरे देशों की तुलना में बायोलॉजिकल रिसर्च दशकों पीछे चला गया है । सच में चला भी गया था।

मैं यह आज ही क्यों कह रहा हूँ ? आज ही सरकार का फैसला आया है जिसका सार यह है कि उसी रिसर्च को फंडिंग मिलेगी जो सरकार की नीतियों के अनुसार होंगे । रिसर्च इंस्टिट्यूट द्वारा सेल्फ फंडिंग की बात भी है । इस कदम से सबसे ज्यादा प्रभावित युवा विज्ञानी ही होंगे । यह "देहरादून डिक्लेरेशन" अगर प्रभावी हुआ तो भारत में हो रहे रिसर्च के ताबूत की कील साबित होगा । ताबूत इसलिए कहा क्योंकि पहले से ही भारत GDP का दो प्रतिशत भी निवेश नहीं कर रहा इसपर । बातें तो विकसित देश बनने की होती हैं जो कम से कम 10% खर्च करते हैं ।

बड़ी चतुराई से लोगो के मन में भर दिया गया है कि यहाँ रिसर्च होते ही नही या यह विलासिता हैं । शायद वह भूल जाते हैं कि 1947 में 50 m टन अनाज उपजाने वाला भारत आज 250 m टन उपजाकर सवा अरब आबादी को खिला रहा है । जमीन तो नही बढ़ी या आसमान से अनाज तो नही टपके ।
व्यावसायिक लिंक बनाएंगे तो रोजगार बढ़ेंगे । ..... जरूर बढ़ेंगे लेकिन एकोन्मुखी शोध अंततः उन्हीं व्यावसायिक प्रतिष्ठानों का गुलाम बनाकर छोड़ेगा । यह भी ध्यान रहे कि नई तकनीक हमेशा वो लाएंगे और हम चिर ग्राहक बनने को अभिशप्त रहेंगे ।

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