Translate

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

आस्था बनाम तर्क

यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में एक प्रसंग है-
तर्कों अप्रतिष्ठः श्रुति र्विभिन्ना
नैको मुनिर्यस्य वचनं प्रमाणम् ।
तर्क को उसकी सीमा दिखाता यह श्लोक बहुत कुछ कह जाता है। हालाँकि इस प्रसंग को उद्धरित करना एक तरह से आस्था है जिसे स्वीकार करना चाहिए। फिर भी प्रश्न तो उठते ही हैं।
किस तर्क की बात करते हैं आप? अपने जन्म से लेकर जीवन के हर क्षण को क्या तर्कों में तौला जा सकता है? किस बिंदु को आधार बनाकर तौलेंगे ? किसी न किसी बिंदु को तो आधार बनाकर उसपर आस्था रखनी ही होगी। फिर तर्क ही सत्य कैसे हो गए ? और इन तर्कों पर आधारित रेशनलिस्ट होने का भाव जो एक सुर से प्राचीनता को अतार्किक कहकर ख़ारिज कर देता है, कैसे तर्क पर आश्रित है ?
हो ही नहीं सकता।
प्रतीकों का महत्त्व इसी कारण है। प्रतीक आस्था के अंग हैं। जो इन प्रतीकों को ख़ारिज करते नजर आते हैं, वह भी एक रेशनलिस्ट होने की "आस्था" पर आश्रित रहते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें