ठेकेदारी लेने की होड़ है। कोई विचारों के नाम पर हस्तक्षेप बरदाश्त नहीं करता तो कोई उत्सर्ग में अपने अस्तित्व का कारण ढूंढता है।
मेरी समझ से विचार के आधार पर हस्तक्षेप न सहन करनेवाले अधिक दोषी हैं। विचार किसी को महान तो बना सकते हैं ,मगर युगप्रवर्तक नहीं। उत्सर्ग का भाव ही सदियों तक जीवित रहता है। विचारों के ठेकेदारों से भी बचने की जरुरत है।
...... पिछले साल इसी दिन का लिखा-
भगत सिंह कम्युनिस्ट क्या हुए आपने तो उन्हें बंधक बना लिया। एक विचारधारा के दायरे में कैद कर लिया और तंज कसने लगे उनपर जो उनकी सोंच के न थे ।
भगत सिंह को कोई उनकी विचारधारा के कारण सम्मान नहीं देता। सम्मान त्याग का होता है, उत्सर्ग का होता है, लक्ष्य का होता है और यह किसी एक विचार की थाती नहीं। आप तो इठलाकर दूसरों को ऐसे दुत्कारने लगे मानों भगत सिंह को उनसे छूत लग जायेगी। वैसे यह ध्यान रहता तो बेहतर होता कि भगत सिंह आदि ने वैचारिक भिन्नता के बावजूद लाला लाजपत राय के लिए सांडर्स को मारा था। लाला जी के विचार क्या थे वह आपसे छुपे नहीं होंगे ।
आप तो ऐसे नहीं थे - आप ऐसे ही थे जनाब।
*भगत सिंह को लेकर गांधी से भी ज्यादा मारामारी है। कारण स्पष्ट होते हुए भी नहीं दिखते।
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