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शुक्रवार, 24 मार्च 2017

बिहार दिवस पर

बिहार की सबसे बड़ी खूबी प्रतिरोध की संस्कृति के होने में रही है। ये प्रतिरोध सफल भी रहे। उदाहरण भरे पड़े हैं।
एक राजा के रूप में उस समय छाये हुए प्रवृतिवाद से मुक्त हो निवृति का मार्ग दिखानेवाले विदेह जनक हों या स्वयं उनकी पुत्री सीता जिनके पुत्रों ने राम के अश्वमेघ अश्व को बाँध लिया, सांकेतिक प्रतिरोध के सूचक रहे हैं।कृष्ण के समय उनका सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी राजगृह का जरासंध ही था। 
जब संपूर्ण देश में एक संस्कृति , एक विचार का वास हो गया तब प्रतिरोध का सशक्त ज्वार महावीर और बुद्ध के माध्यम से उठकर संपूर्ण विश्व को नई दिशा दे गया।

फिर हम चाणक्य और चंद्रगुप्त को क्यों भूलें ? खंड-खंड विभक्त गणतंत्रात्मक एवं राजतंत्रात्मक भारतभूमि को सर्वप्रथम एकीकृत करने का बीड़ा इसी मिट्टी ने उठाया और जब इस क्रम में भारतवर्ष सतत युद्धों के कारण क्षत-विक्षत और शोणितमय होने लगा तब यहीं के एक चक्रवर्ती सम्राट ने न भूतो न भविष्यति कार्य करते हुए स्वयं को सामने रखते हुए धम्म का प्रसार किया। 
यह प्रतिरोध धर्म के क्षेत्र में था तो विज्ञान की धारा भी आर्यभट्ट और वराहमिहिर सदृशों से अछूती न रही।

अपने चरम पर रहे मुगलों को राजनैतिक और नीतिगत रूप से जितना शेरशाह सूरी ने प्रभावित किया उतना उस वक्त किसी के बस का नहीं था। 
प्रथम अहिंसक सत्याग्रह भी तो यहीं हुआ। सत्याग्रह, जिन प्रदेशों में सबसे ज्यादा उफान पर था ,बिहार उनमें अग्रगण्य है। बिहार-एक राज्य के रूप में भी तो एक प्रतिरोध के उपरांत ही आया। आज़ादी के बाद भी, जयप्रकाश आंदोलन यहीं मुखरित हो केंद्रीय सत्ता को हिला गया। उदाहरण तो वर्तमान का भी है।

इस संस्कृति को बनाये रखना ही बिहार की पहचान है। सफलता- असफलता अधिक मायने नहीं रखती। असफ़ल होकर भी कोई बहुत कुछ बदल डालता है। हालांकि इस क्रम में मजाक उड़ने से लेकर हर तरह का दोषारोपण भी झेलना पड़ता है। आर्थिक विपन्नता सामने खड़ी हो जाती है। फिर भी प्रतिरोध ही वह संस्कृति है जो भविष्य का दिशा-निर्धारण करती है। 

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