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शुक्रवार, 24 मार्च 2017

फतवा

फतवा अलग क्यों लगता है ? एक मध्ययुगीय प्रणाली! फतवे के विषयवस्तु को लेकर उठते सवाल जरुरत हैं, जायज हैं, मगर पूरी अवधारणा पर ही प्रश्न !
जब मजहब और सो कॉल्ड साइंस का डाइवोर्स नहीं हुआ था तब ऐसी ही अवधारणाएं समाज को एक सूत्र में बांधकर सुचारू रूप से चलाने का काम करती थीं। हुआ यह कि उत्तरोत्तर भौतिक प्रगति के साथ लोगों को रिलिजन बकवास लगने लगा। कुछ गड़बड़ रिलिजन में भी रही। स्टेट नामक नए मजहब ने पुराने मजहबों को प्रत्यस्थापित किया । ऐसे में फतवो के नए प्रकार ने पुराने प्रकार के हर फतवों को बेकार सिद्ध किया। हित में था। हालांकि एक जरुरत भी थी शुरुआत में। किंतु इस हस्तक्षेप ने फतवों या इस प्रकार की हर संकल्पना को और अधिक भ्रष्ट कर दिया। आज वही नजर आते हैं।
आज कोर्ट संविधान के आधार पर सलाह देता है । मौलिक अधिकार है यह। जातिगत सभाएं होती हैं ,उनमे फैसले होते हैं कि किस पार्टी को वोट देना है। क्या यह फतवा का ही एक प्रारूप नहीं ? व्हिप जारी किये जाते हैं। इधर नित्य देशद्रोही, काफ़िर घोषित करने का आह्वान किया जाता है। क्या यह फतवा का प्रारूप नहीं ? कभी पंचायतें फैसला करती थीं जो बाध्यकारी होती थीं। तुलनाएं भरी पड़ी हैं। आज बस पुराने फतवा शब्द के स्थान पर नए प्रगतिशील दिखनेवाले शब्द आ गए हैं ।
हाँ, मानवतावादी संकल्पनाएँ आ गई हैं जो पुराने फतवों से नदारद थीं । मगर समझने की बात यह है कि उस काल के विचार उस काल की विशेषताएं थीं। वह हर क्षेत्र में दिखती थीं।
फतवा सलाहकारी है या बाध्यकारी, यह महत्त्व का होते हुए भी अवधारणा के प्रश्न पर महत्वहीन है। अपने ही अतीत से वैर क्यों ? अपने ही वर्तमान को क्यों नहीं देखते ? स्वीकार करें, सुधार करें, इसे दुत्कारना उन्हें अधिक भ्रष्ट बनायेगा.... पीछे ले जायेगा। प्रगतिशीलता जितना ही अधिक उन्हें मध्ययुगीय कहकर दुत्कारेगी, वह उतने ही कूपमंडूक होते जायेंगे।

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