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शुक्रवार, 24 मार्च 2017

रानी और आज के रणबांकुरे

रानी पद्मावती पर बनती फिल्म पर हंगामा अकारण नहीं था। बात सिर्फ अभिव्यक्ति की नहीं थी। यह बात समझनी चाहिए। 
विसुअल मीडिया इतिहास और मान्यताओं को बदल कर रख देता है। जो सही नहीं, वह सही बन जाता है। इस पॉइंट को समझना चाहिए। 
मुगले आज़म बनी थी। अनारकली और सलीम का प्रेम सदा के लिए अमर हो गया। ऐतिहासिक रूप से यह सत्य नहीं। बल्कि इससे अच्छी फ़िल्म तो संजय खान की "ताजमहल"थी जिसमे अर्जुमंद बानो बेगम के ही बहाने ही सही, नूरजहाँ का वास्तविक चरित्र दिखलाया गया।

रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी ने भी ऐतिहासिक तथ्यों का व्यतिक्रमण किया था। हालाँकि इसे इस बात की छूट दी जा सकती है कि फिल्म का भाव सही रहा। श्याम बेनेगल की द मेकिंग ऑफ़ महात्मा कहीं अच्छी फिल्म रही। 
मगर यह बात अन्य ऐतिहासिक पात्रों पर बनी फिल्मों के प्रति सही नहीं कही जा सकती। न अम्बेडकर ,न पटेल, न सावरकर, न भगत सिंह और न ही मॉन्टबेटन पर बनी फिल्मों ने न्याय किया है। श्याम बेनेगल की सुभाष पर बनी फिल्म ऐसे में अच्छी कही जा सकती है।

अभिव्यक्ति के तहत सब जायज है!
ऐसे में यदि विरोध होता है तो उसपर ध्यान देना चाहिए। क्यों और किस कारण से लोग भड़क रहे, यदि यह समझा नहीं जाता तो दरअसल सत्य, सत्य होकर भी सत्य नहीं होता और जिस असत्य को सत्य बनाने का प्रयास हो रहा होता है, वह भी सत्य - असत्य की परिधि से निकलकर भावनाओं में बंट जाता है। 
अंततः सत्य भावनाएं ही होती हैं, तथ्य नहीं। यह बात समझने के लिए वैज्ञानिक नील्स बोह्र और आइंस्टीन की बहस पढ़नी चाहिए। 
नई फिल्म आ रही है-वाइसरॉय हाउस।बनानेवाली भारतीय हैं मगर इस फिल्म के रिव्यु ऐसे दिखा रहे हैं मानो माउंटबेटन ने भारत को मुक्ति दिलाई। भारतीय नेता पिछड़े हुए थे। पता नहीं स्क्रिप्ट राइटर ने शायद कैम्ब्रिज हिस्ट्री ही पढ़ी हो जो ब्रिटिश द्वारा द्वारा किए अन्यायों में भी सभ्यता को ऊँचा बनाने के पहलु ढूंढ लेती है। कैम्ब्रिज हिस्ट्री इंग्लैंड का राष्ट्रवादी इतिहास लेखन है जो हर हाल में राष्ट्र को अच्छा दिखाता है। भारत का तथाकथित राईट विंग इसे बुरा मानते हुए भी बुरा नहीं मानेगा। 
अभिव्यक्ति अधिकार है मगर साथ में एक जिम्मेदारी भी। जिम्मेदारी का भाव अधिकार के पहले आना चाहिए। नहीं होता ऐसा। सबका यही हाल है।

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