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रविवार, 30 दिसंबर 2012

संघों और संघटनों से आशा


            कहना प्रासंगिक हो चला है कि अब देश में पुनः सामाजिक सुधारकों और सांस्कृतिक संघटनों की आवश्यकता बढ गई है. आज़ादी के बाद बहुत कुछ बदल चुका है. पर अगर पूछा जाये तो सबसे ज्यादा बदलाव जनता की मानसिकता में दिखता है.
भारत का स्वतंत्रता संघर्ष विश्व के पटल पर अप्रतिम स्थान रखता है. शायद ही किसी देश के स्वतंत्र्य संघर्ष में राजनीतिक और सामाजिक सुधार एक साथ चले हों. लगभग हर नेता की दो भूमिकाएं थी, कुछ आरंभिक उदारवादिओं को छोड़ दें तो. तिलक, गाँधी, सुभाष, अम्बेडकर, आज़ाद, मालवीय जी आदि राजनीति के स्तंभ तो थे ही, सामाजिक सुधारों में भी संलग्न थे. अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराएं जो समाज के मुद्दे पर एक हो जाती थी. राजनीतिक जागरण ने सामाजिक सुधारों की पहल की, या सामाजिक सुधारों ने राजनीतिक समझ बढ़ाई, कुछ कहा नहीं जा सकता. शायद दोनों नें एक दूसरे को आगे बढ़ाया. इन महान नेताओं की फ़ौज़ ऐसे ही न निकली थी. इनके पीछे रामकृष्ण मिशन, आर्य समाज और सत्यशोधक समाज जैसे संघटनों का योगदान था जिन्होने समाज सुधार और स्वाधीनता को धर्म से जोड़ दिया. चरित्र-निर्माण इन संघटनों का एक आधारभूत विषय था. काफी बाद में आये राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इस चरित्र-निर्माण और अनुशासन को अपना एक कर्तव्य माना.
आज़ादी के बाद यह लय खो सी गई. अब समाज सुधारक और राजनेता अलग-अलग होने लगे. दरअसल सांसद ऐसे-ऐसे लोग बनने लगे जो राष्‍ट्रीय आन्दोलनों के जोश की पैदाइश थे और जिनका इन संघटनों से कोई सम्बंध न था. चरित्र गिरा, भ्रष्टाचार बढ़ा, राजनीति में और उसका अनुकरण करनेवाले समाज में भी. यह और कुछ नहीं, इन संगठनों की विफलता ही थी जो युवा-वर्ग को अपनी ओर आकर्षित न कर पाने का कारण बनी. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि सम्पूर्ण देश में अपनी पहुंच के बावजूद राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस कार्य में असफल रहा है. शायद इसके अतिवादी रूप के आगे इसका यह चेहरा ओझल हो गया है. साधारण व्यक्ति भी इसे अब इसी रूप में देखता है. समाज-सुधार के नाम पर पार्क में बैठे युगलों को पीटना समस्या का समाधान नहीं. इससे तो वो और दूर छिटक जायेंगे.
वैश्विकरण और बदलती जीवन शैली ने इस समस्या को और विकट बना दिया. लोगों के आदर्श बदलने लगे. सुभाष का स्थान सलमान ने ले लिया. धार्मिक किताबों के स्टाल पर रंगीन किताबें सज गईं. सन्नी लीयोन और पूनम पाण्डेय को रानी लक्ष्मीबाई से ज्यादा लाइक मिलने लगे फेस बुक पे.  एक बात और कहना चाहूंगा. वैज्ञानिक प्रगति और इंटरनेट के बढते प्रयोग ने जहाँ नई नई सुविधाएं प्रदान की हैं, वहीं इनके दोषों को नकारा नहीं जा सकता है. पिछले 10-15 वर्षों में बलात्कार की घटनाएं बढी हैं. यह वही समय है जिसमें इंटरनेट का प्रयोग बढ़ा, यह वही समय है जिसमें परम्परागत बड़े कॅसेट्स को सीडी ने प्रतिस्थापित कर दिया. सारा मार्केट इन पाइरेटेड सीडी से भरा पड़ा है......इसने घर-घर तक पॉर्न को पहुँचा दिया. कुछ लोगों पर शायद इस पॉर्न का असर न होता हो, पर बहुतों के लिये यह वासना भड़काने वाला ही सिद्ध हुआ है. हमारे गिरते चरित्र का एक और सबूत-एमएमएस. इन पॉर्न और एमएमएस में बलात्कार वाले दृश्य रहते ही होंगे.
न ही सरकार और न ही कोई संगठन इस समस्या को दूर करने का प्रयास कर रहा है. इसके परिणाम भविष्य में घातक सिद्ध होने वाले है.
ठीक उसी तरह बिग बॉस जैसे गालिओं से भरे रिलिटी शो के हम आदी होने लगे हैं. अब तो हमें यह सब नॉर्मल लगने लगा है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बनती द्विआर्थी फिल्में अब हमारे जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं.
समाज एक दिन में नहीं बना है और न ही बनता है. कुछ बातें हैं, जिन्हें हमें बढ़ने नहीं देना चाहिये, नहीं तो समाज का हिस्सा बनते उन्हें देर न लगेगी.
नैतिक साहित्य को पाठ्यक्रम में डालना होगा. पर यहाँ भी राजनीति हो चुकी है. मध्य प्रदेश में गीता के कुछ अंशों को पाठ्यक्रम में डालने का पुरजोर विरोध किया गया धर्मनिरपेक्षता के नाम पर. वो अंश नैतिक थे, धार्मिक नहीं. भई सारे धर्मों की अच्छी बातों को डाल दो.
अंत में यही कहना चाहूंगा कि सरकार तो पहल करे ही इन विकट होती समस्याओं के निवारण हेतु, सामाजिक व सांस्कृतिक संघटनों का सहयोग भी अति अपेक्षित है. बल्कि यदि यह कहा जाये कि इन्हीं पर भविष्य के भारत का चरित्र निर्भर है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी.

रविवार, 9 दिसंबर 2012

बैंगन पुराण


बैगन, नाम ही काफी है दहशत फैलाने के लिये. खाने की थाल में देख कई अच्छों के पसीने छूट जाते हैं, कई रुआंसे हो जाते हैं. बैंगन इनके लिये आतंक का पर्याय बन चुका है. हाँ, कई वीर ऐसे भी हैं जिन्हें खतरों से खेलना अच्छा लगता है. निश्चय ही यह बैंगन उन्हें प्रिय है.

नाम कई, आकार कई, प्रकार कई. कोई बैंगन कहता है, तो कोई भंटा. कभी गोलाकार होता है तो कभी लम्बाकार. छोटे बड़े सभी आकारों में उपलब्ध है यह बैंगन. बहुलता और प्रचुरता इतनी कि यदि एक बैंगन पुराण भी लिखा गया होता तो कम होता. हमने बहुत खोजा, तलाशा कि कहीं ऋषिओं द्वारा कुछ लिखा मिल जाये, पर असफलता ही हाथ लगी. जब किसी पादप-विज्ञानी ने बताया कि बैंगन का उद्गम स्थल भारत नहीं है, तब कोई साहित्य नही मिलने का मसला समझ में आया. सोंचा कि मैं ही यह महत कार्य कर लूँ. आखिर देश और समाज के प्रति कुछ कर्तव्य तो बनता ही है. बैंगन के पौधे पर धागे लपेटकर और एक गोल बैंगन (भंटा) पर टीका और अगरबत्ती सजाकर मैने अपना लेखन श्रीगणेश किया.

एक साल हो गये. आज लग रहा है कि लेखन कार्य संपन्न होने को है. यह एक साल बड़ी ही भाग-दौड़ में गुजरा. किस्मों की तलाश में कश्मीर से कन्याकुमारी तक भ्रमण किया. जगह-जगह किसानों, विक्रेताओं और उपभोक्ताओं के साक्षात्कर भी लिए. सचमुच आज मुझे अपने माता-पिता पर गर्व हो रहा है क़ि उन्होने मुझ जैसे लाल को जन्म दिया.

दरवाजे पर आहट हुई. पूछा कौन ? खोला. देखा शर्मा जी खड़े हैं. शर्मा जी एक अमेरिकन बहुराष्ट्रीय कंपनी कॉनसेंटो के भारत प्रमुख हैं. समाज में उठना-बैठना कम है पर अक्सर हमारे यहाँ आना-जाना लगा रहता है. भई लोगों को आजकल मरने की भी फुर्सत हो या न हो, हाथ दिखाने और कुंडली बनवाने का समय निकल ही जाता है.  इधर-उधर की बातें हुईं. बड़े ही चिंतित थे आज. बोल रहे थे कि उनका ओर उनकी कंपनी के भारत में भविष्य का फैसला होनेवाला है कल. मैने कुंडली देखी और और लिखकर दिया कि भगवान के घर देर है अंधेर नहीं. बेचारे और व्यथित हो गये. अब मैने पूछ ही दिया-क्या बात है ?

शर्मा जी- आज सुप्रीम कोर्ट में बीटी बैंगन पर फैसला आने वाला है. अब चौंकने की बारी मेरी थी. बीटी बैंगन, यह क्या बला है. मुझे अपने बैंगनाचार्य होने का सारा अहम मिट्टी में मिलता दिखाई देने लगा. ओह, इधर एक वर्ष की भाग-दौड़ ने मुझे खबरों से कितना दूर कर दिया था. खैर. शर्मा जी तो चले गये पर हमारे जेहन में सवालों की झड़ी लगा गये.

मैने अपने एक पत्रकार मित्र के घर धावा बोला. अप्रत्याशित आक्रमण से अचंभित बन्धु ने मुझे प्रेम से सारी कहानी सुनाई. अब कहानी सच है या झूठ, कितना नमक मिर्च मिला है, मुझे नही पता. मैं इसे यथावत आप लोगों से समक्ष रख रहा हूँ.

कॉनसेंटो एक बहुराष्ट्रीय अमेरिकन कंपनी है. कृषि के क्षेत्र में इसकी धाक है. कई वर्षों से भारत में अपने पेर जमाने की कोशिश कर रही है. पर अफसोस अमेरिका के सहयोग के बावजूद इसे मनचाही सफलता नहीं मिली. इसने भारत में जैविक रूप से संवर्धित (जेनेटिकली मॉडिफाइड) अर्थात जीएम फ़सलों को बाज़ार में उतारने का फैसला किया. हालांकि यह ऐसा पहले भी कर चुकी है और कुछ सफलता के दर्शन भी हुए हैं, पर भारत जैसे विशाल देश में यह काफी न था. सर्वे किया तो पता चला कि भारतीय बैंगन बहुत उगाते और खाते हैं.

 इस बिंदु पर मेरा शोध कॉनसेंटो के सर्वे से बिल्कुल मैच कर रहा था. स्वतः मेरी सहानभूति कॉनसेंटो के साथ जुड़ गई. कॉनसेंटो "बैंगन का ताड़नहार". हूँ, अच्छा रहेगा. मैने अपने महाकाव्य के एक अध्याय का नाम सोंच लिया. साथ में यह अंदेशा भी लगने लगा कि कहीं मेरी वर्षों  की मेहनत कॉनसेंटो वालों ने उड़ा तो न ली. 

बन्धु ने टोका-प्रसन्न जी, कहाँ खो गये ? 

बन्धुवर बता रहे थे कि किस तरह यह बीटी बैंगन बना. करीब छह महीने लगे इसमें. बनना तो कठिन था पर उसे भारत के बाज़ार में उतारना और भी अधिक कठिन. इस अद्भुत बैंगन की खूबी यह थी कि इसमें कीडे नहीं लगते थे.

कंपनी में ब्रह्मास्त्र चलाया और अमेरिका ने भारत पर दबाब बनाना शुरु किया. इतने से भी काम न चला तो कई मंत्रिओं के खाते में चंदा देकर अपनी कॉर्पोरेट रेस्पॉन्सिबिलिटी निभाई. इन्हीं सत्‍प्रयासों का फल था कि इस नायाब बैंगन कोसरकार ने बाज़ार में उतारने का फैसला कर ही लिया.

कीटनाशक उद्योग में खलबली मच गई. कीट प्रतिरोधी बैंगन उनके सारे कीटनाशकों का भट्ठा बैठा देता. कई कीडे तो खुद इनकी देन थे. अब करें तो क्या करें ? सरकार इनके विपरीत दिशा में बह रही थी. अंत में इन्होने गैर सरकारी संगठनों के चम्पू का सहारा लिया. कैसे लिया यह मत पूछिये. देश भर में विरोध होने लगा. पर्यावरणविद अलग ही विरोध में थे.

कुछ वैज्ञानिक विरोध में थे और कुछ साथ. दरअसल जो कॉनसेंटो के प्रॉजेक्ट पर काम कर रहे थे, उनका साथ देना तो लाजमी था. पर्यावरणविदों ने बिना किसी पूर्व-परीक्षण के इसे उपयोग में लाये जाने का प्रतिकार किया. कॉनसेंटो ने इसके जबाब में अपने दो साल के बैंगन प्रॉजेक्ट का चर साल के परीक्षण का डाटा प्रस्तुत कर दिया. भले ही यह परीक्षण भारत में न किये गये हों.

अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट गया. गैर सरकारी संगठनों ने इस सरकारी बैंगन और सरकार पर केस ठोक डाला.

यही थी अब तक की कहानी.
आम आदमी की तरह बैंगन भी राजनीति का शिकार हो गया. इसकी हालत कुछ-कुछ हमारे देश सरीखी हो गई है. अमेरिकी दबाब को भी झेला है इसने. इसे राष्‍ट्रीय सब्जी कहना गलत न होगा.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया. दस साल तक परीक्षण के बाद ही कोई जैविक संवर्धित फसल उपयोग में लाई जा सकती थी. कीटनाशक उद्योग दिवाली माना रहा था.

किचन गार्डेन में बैठा बैंगन के पौधे को देखे जा रहा था. एक कीडा निकला. मुझे लगा कि मुस्कुरा रहा है. अचानक पत्ते से टपकी एक पानी की एक बूंद ने उसे वापस बैंगन के अंदर घुसने पर मजबूर कर दिया. सोंच रहा हूँ कि क्या मेरी हालत भी ऐसी ही हो गई है. कहाँ चला था बैंगन पुराण लिखने और कहाँ इस कीडे की तरह दस साल गुजरने का इंतज़ार कर रहा हूँ.

भविष्य क्या होगा पता नहीं. क्या नये-नये कीडे और पैदा होंगे ? क्या अमेरिकी बैंगन भारतीय देशी बैंगन का सफाया कर देगा ? इंपोर्टेड राष्‍ट्रीय सब्जी........