Translate

रविवार, 19 जून 2016

कहानी साउथ अफ्रीकन इंडियन की।

"पहले हम उनके समान गोरे नहीं थे और अब हम इनके समान काले नहीं हैं। "
..... कहानी साउथ अफ्रीकन इंडियन की।
1994 साउथ अफ्रीका के लिए अपारथाइड समाप्ति को लेकर आया। ख़ुशी की लहर थी। वहां के भारतीय मूल के निवासी भी इस ख़ुशी में शरीक थे। अपारथाइड को उन्होंने भी झेला और उसके विरुद्ध संघर्ष किये थे। नेल्सन मंडेला की कैबिनेट में कई शामिल किये गए। मंडेला ने कहा भी था - समस्याओं के समाधान में इंडियन भागीदार हैं , वह स्वयं समस्या नहीं हैं।
बाद में क्या हुआ ?
ब्लैक मूलनिवासियों के लिए अफ्फर्मेटिव एक्शन कार्यक्रम चलाये गए जिनसे इंडियन को दूर रखा गया। इंडियन एक बार फिर अपारथाइड सा महसूस करने लगे। इनके इस भाव को बढ़ावा दिया ब्लैक मूल निवासियों के बीच इन इंडियन के प्रति बढ़ती घृणा ने, वह घृणा जिसके वास्तविक कारण तो उनकी स्वयं की ख़राब स्थिति थी पर जो ऐतिहासिक रंग लेकर आई थी।
ऐतिहासिक, हाँ, ऐतिहासिक कारण वह थे जो रंगभेदी सरकार की फूट डालो और शासन करो नीति के तहत पैदा हुए थे। पॉपुलेशन रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत सबको अलग कॉलोनी में बसाया गया। कुछ इंडियन अपने व्यापार के कारण समृद्ध होने लगे थे। ब्लैक लोगों ने इस कारण उन्हें शोषक के रूप में देखना शुरू कर दिया। जबकि हकीकत उन ब्लैक लोगों से अधिक जुदा नहीं थी। फूट पड़ चुकी थी। दंगे तक हुए।
बावजूद इसके कि इंडियन की कई नगरीय कांग्रेस ने अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस और UDF को खुला समर्थन दिया, कई सालों तक जेल में रहे, अब इन्हें कालों में नहीं गिना जाता। अब इनसे इनकी पहचान पूछी जाती है कि आप इंडियन हैं , साउथ अफ्रीकन इंडियन हैं या सिर्फ साउथ अफ्रीकन हैं। जाहिर है गरीबी, बेरोजगारी ने राष्ट्रवाद को चरमोत्कर्ष तक पहुंचा दिया है। अब ब्लैक लोगों की प्रॉब्लम का दायरा खान-पान, रहन-सहन से लेकर उनके जीवन के हर पहलु तक पहुँचने लगा। हमले शुरू हुए। बड़े-बड़े धन्ना तो अपनी सुरक्षा में सक्षम थे पर इस कारण मध्यम और निम्न वर्ग अपनी-अपनी कॉलोनी में सिमटने लगे। यह अपारथाइड का नया संस्करण है।
आरोप यह भी लगाए जाते हैं कि इंडियन ने वाइट - माइनॉरिटी अलायन्स को चुनावों में वोट दिए थे। कुछ हद तक सही भी था। वह ब्लैक-लोगों की अपने से घृणा समझते थे। वाइट लोगों को वोट देना अर्थात एक तरह से राष्ट्रद्रोह। क्यों न पूछी जाए ऐसों से उनकी पहचान ! महात्मा गांधी की पोती इला गांधी ( एक MP) तक को भारतीय पहचान पर स्पष्टीकरण देना पड़ा - "मैं साउथ अफ्रीकन हूँ, एक गौरवान्वित साउथ अफ्रीकन। भारतीयता संस्कृति के स्तर तक आती है, हम क्या खाते हैं, किस तरह से खाते हैं, क्या संगीत, नाटक, भाषा पसंद करते हैं। इन विविधताओं से हम "अपने" देश का संवर्धन ही कर रहे हैं। मूलतः मैं यही कहना चाह रही हूँ कि हमारी भारतीयता यहीं समाप्त हो जाती है। "
सच ही कहा था इला ने। इनके तो अब पुरखे भी भारत में ढूंढे नहीं मिलते।
ब्लैक वही कर रहे जो उनके साथ कभी हुआ था।
अस्वाभाविक नहीं एक साउथ अफ्रीकन इंडियन का यह कहना कि इससे तो अच्छा अपारथाइड था।
कहानी कुछ सुनी-सुनाई लग रही है न, अपनी सी।



मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

रिसर्च पालिसी



रूस ( तब का USSR)में कभी एक वैज्ञानिक हुआ था। नाम था लयसेंको(Trofim Lysenko) । जनाब बायोलॉजिस्ट और अग्रोनॉमिस्ट थे। इनकी खोजी तकनीक आज भी vernalisation के नाम से जानी और पढ़ाई जाती है ( ठन्डे तापमान के प्रभाव से फ्लोवेरिंग पीरियड बढ़ जाता है और इसके कारण ग्रेन फिलिंग अधिक होती है। फलतः उपज में वृद्धि होती है ) । शुरुआत में इस तकनीक से बहुत लाभ मिला ( लाभ या प्रोपेगंडा ?) । कृषक पृष्ठभूमि से आते थे और इस पृष्ठभूमि का लाभ उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन के रूप में मिला । जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं वह समझ सकते हैं कि किसानो के समर्थन की कितनी जरुरत कम्युनिस्ट पार्टी को थी। दरअसल यह पार्टी किसानो को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रही थी। खैर, स्टालिन की छत्रछाया में लयसेंको देश के सर्वोच्च वैज्ञानिक पद तक पहुंचे। कहानी अब शुरू होती है।


लयसेंको ग्रेगोर मेडल ( फादर ऑफ़ जेनेटिक्स) के प्रबल आलोचक थे । इन्होंने एक अपना सिद्धांत खड़ा किया और उन सभी वैज्ञानिकों को जो मेंडल के पक्ष में थे , चुन चुनकर या तो कारावास पहुंचा दिया या फिर मरवा दिया। सोवियत संघ में अब केवल वही बायोलॉजिकल रिसर्च चल सकते थे जो सरकार की नीतियों के अनुरूप हों , वो सरकार की नीतियां जो गरीबोन्मुखी और रोजगारपरक थीं ।

जब तक स्टालिन रहा , लयसेंको की आलोचना राष्ट्रद्रोह थी। ख्रुश्चेव के हटने के बाद पहली बार प्रस्ताव पारित कर वैज्ञानिक समुदाय ने लयसेंको की आलोचना की और साफ़ साफ़ कहा कि रूस की नीतियों के कारण आज दूसरे देशों की तुलना में बायोलॉजिकल रिसर्च दशकों पीछे चला गया है । सच में चला भी गया था।

मैं यह आज ही क्यों कह रहा हूँ ? आज ही सरकार का फैसला आया है जिसका सार यह है कि उसी रिसर्च को फंडिंग मिलेगी जो सरकार की नीतियों के अनुसार होंगे । रिसर्च इंस्टिट्यूट द्वारा सेल्फ फंडिंग की बात भी है । इस कदम से सबसे ज्यादा प्रभावित युवा विज्ञानी ही होंगे । यह "देहरादून डिक्लेरेशन" अगर प्रभावी हुआ तो भारत में हो रहे रिसर्च के ताबूत की कील साबित होगा । ताबूत इसलिए कहा क्योंकि पहले से ही भारत GDP का दो प्रतिशत भी निवेश नहीं कर रहा इसपर । बातें तो विकसित देश बनने की होती हैं जो कम से कम 10% खर्च करते हैं ।

बड़ी चतुराई से लोगो के मन में भर दिया गया है कि यहाँ रिसर्च होते ही नही या यह विलासिता हैं । शायद वह भूल जाते हैं कि 1947 में 50 m टन अनाज उपजाने वाला भारत आज 250 m टन उपजाकर सवा अरब आबादी को खिला रहा है । जमीन तो नही बढ़ी या आसमान से अनाज तो नही टपके ।
व्यावसायिक लिंक बनाएंगे तो रोजगार बढ़ेंगे । ..... जरूर बढ़ेंगे लेकिन एकोन्मुखी शोध अंततः उन्हीं व्यावसायिक प्रतिष्ठानों का गुलाम बनाकर छोड़ेगा । यह भी ध्यान रहे कि नई तकनीक हमेशा वो लाएंगे और हम चिर ग्राहक बनने को अभिशप्त रहेंगे ।

चींटियाँ

इस दीवार में दरारें हैं
कटी फटी बेतरतीब सी।
एक सीध से उनमे आती-जाती-खोदती
चींटियों की कतारें हैं।
उस नन्हे पौधे को एक दिन
दरख़्त बनना है।
जम आई मिट्टी पर
फैलती सिकुड़ती उसकी जड़ों को
चींटियों की लाश तक से नमी सोखना है।
एक घोसला भी दिखने लगा है।
चींटियों को चुगती एक चिड़ी नजर आई।
उसके उड़ते ही बड़ी चींटियों का रेला
छोटी नवजात चिड़ी की चाह में,
बिना सीध-असीध की परवाह किये
घोसले की ओर बढ़ने लगा है।
- - - - - - - - - - - -
इन दरारों से झाँकने पर अब
किसी पुराकालीन दीवार के अवशेष मिलते हैं।
उस दरख़्त की जड़ों में अब
अनेक प्रकार के जीव रहते हैं।
शाखाओं पर पक्षी का डेरा है।
हाँ , उस कभी शांत -स्थिर दीवार पर अब
अराजक जंगल का बसेरा है।
अब सिर्फ चींटियाँ ही नहीं रहतीं।
चींटीखोरों का कुनबा बसता है।
और चींटियाँ का सीधा प्रवाह अनुशासन से नहीं ,
उन चींटीखोरों के डर से सरकता है।
The White Man's Burden / कॉलोनी के लोगों को सभ्य बनाता / स्नान और सफाई का महत्त्व समझाता हमारा अपना Pears सोप ; 19वीं सदी के उत्तरार्ध का एक विज्ञापन -
विज्ञापन में यूनिफार्म पहना एक ऑफिसर ( कंधे पर बार बना हुआ है ) Pears सोप से हाथ धो रहा है जो यह दिखाता है कि वह सभ्य है। वह एक शिप पर है। बाएं नीचे शिप का दृश्य अंकित है जो यह दिखाता है कि वह विश्व यात्रा पर निकला है और साथ में Pears सोप ले जा रहा है। दायें नीचे वह Pears सोप कॉलोनी में वहां के नेटिव को देता है जो उसके सामने समर्पण मुद्रा में हाथ फैलाये झुका हुआ है। उसकी काली त्वचा और पश्चिमी कपड़े का अभाव उसी असभ्यता को दर्शाता है।
कुछ सन्देश भी विज्ञापन पर अंकित हैं जो सफाई/ स्वच्छता को बड़ा गुण बताते हुए यह कहते हैं यह गोरे लोगों की जिम्मेदारी है कि वो यह सन्देश सभी जगह पहुंचाएं। सन्देश आगे कहता है कि सभी देशों के सभ्यों में Pears सोप का स्थान सर्वोच्च है , एक आदर्श सोप के रूप में स्थापित है। यह एक प्रबल तत्व है जो सभ्यता के विकास के दौरान धरती के अंधियारे कोने में उजाला ला सकता है।
*"The White Man's Burden" रुडयार्ड किपलिंग की प्रसिद्द कविता है।



Original title: "The White Man's Burden: The United States and The Philippine Islands
Take up the White Man's burden, Send forth the best ye breed
  Go bind your sons to exile, to serve your captives' need;
To wait in heavy harness, On fluttered folk and wild—
  Your new-caught, sullen peoples, Half-devil and half-child.

Take up the White Man's burden, In patience to abide,
  To veil the threat of terror And check the show of pride;
By open speech and simple, An hundred times made plain
  To seek another's profit, And work another's gain.

Take up the White Man's burden, The savage wars of peace—
  Fill full the mouth of Famine And bid the sickness cease;
And when your goal is nearest The end for others sought,
  Watch sloth and heathen Folly Bring all your hopes to nought.

Take up the White Man's burden, No tawdry rule of kings,
  But toil of serf and sweeper, The tale of common things.
The ports ye shall not enter, The roads ye shall not tread,
  Go mark[14] them with your living, And mark them with your dead.

Take up the White Man's burden And reap his old reward:
  The blame of those ye better, The hate of those ye guard—
The cry of hosts ye humour (Ah, slowly!) toward the light:—
  "Why brought he us from bondage, Our loved Egyptian night?"

Take up the White Man's burden, Ye dare not stop to less—
  Nor call too loud on Freedom To cloak your weariness;
By all ye cry or whisper, By all ye leave or do,
  The silent, sullen peoples Shall weigh your gods and you.

Take up the White Man's burden, Have done with childish days—
  The lightly proferred laurel, The easy, ungrudged praise.
Comes now, to search your manhood, through all the thankless years
  Cold, edged with dear-bought wisdom, The judgment of your peers!


किसके गांधी ?

किसके गांधी ?
आज विरोधियों पर लिख नहीं रहा। विरोधियों से डर नहीं लगता साहब , समर्थकों से लगता है।


आज संघी भी गांधी को अपनाने को तैयार बैठे हैं। वामपंथी कब के मजबूरीवश अपना चुके। आज़ादी के पहले अल्पसंख्यकों के लिए अछूत हो चुके गांधी आज़ाद भारत में उनके लिए सहारा हो गए , कम से कम आरंभिक वर्षों में। नेहरू समर्थकों के लिए गांधी श्रद्धापुरुष बने रहे। समाजवादियों ने भी उनको सम्मान दिया। गांधीवादी तो थे ही।

अपनाने की मजबूरियों की बात को किनारे कर दें तो क्या लगता है ? यही न , कि गांधी संघी भी थे , वामपंथी भी , अल्पसंख्यक समर्थक , समाजवादी और गांधीवादी भी। और आस्तिक और नास्तिक दोनों।

ऐसा कैसे हो सकता है ?

या तो यह व्यक्ति मल्टीप्ल पर्सनाल्टी डिसऑर्डर का शिकार था या फिर अवसरवादी। या एक समग्र इंसान जिसकी बातों को अपने हिसाब से हमने उपयोग किया।

कोई सिर्फ उनके क्रिस्चियन मिशनरियों के विरोध को अपनाता है तो कोई धर्मनिरपेक्ष तत्व को। कोई गौहत्या विरोधी रूप को दिखाता है तो कोई गौहत्या पर पाबन्दी न लगवाने के समर्थन में। कोई सिर्फ अार्थिक सिद्धांत को उद्धृत करता है तो कोई अम्बेडकर विरोधी छवि को भुनाता है। कोई "अंतिम आदमी तक स्वराज " को प्रदर्शित करता है तो कोई पूंजीपति समर्थक छवि दिखाता है। कोई "राम मंदिर " तक में उनका प्रयोग करता है तो कोई "राम मंदिर" के विरोध में। और कोई बस सफाई करवा के खुश होता है।

अपने अपने गांधी।

सवाल फिर वही - किसके गांधी ?

शायद गांधी किसी के नहीं हैं इनमे। गांधी स्वयं अपने भी नहीं थे। न गांधी को हिन्दू धर्म से अलगकर समझा जा सकता है , न ही उन्हें सर्वधर्मसमभाव से जुदा किया जा सकता है। न आधुनिकता के साँचे में उन्हें देखा जा सकता है , न ही परंपरानिष्ठा में ढाला जा सकता है। न ही क्षद्म आस्तिकता और न ही क्षद्म नास्तिकता सही दृष्टि से देख सकती है।

सच सबमे है , किसी भी विचारधारा के हों। पर पूर्ण सत्य कोई नहीं। यदि आप अपनी विचारधारा (?) , यदि हो , ( अमूमन होती नहीं , बस नक़ल करते हैं ) , को पूर्ण सत्य मानते हैं तो अफ़सोस , कभी सत्य जान नहीं पाएंगे।

क्या लिखूं और !! होड़ लगी है यहाँ बाजार में। पब्लिक के हिसाब से पोलिश करो , पक्का बिकेगा।