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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

किसके गांधी ?

किसके गांधी ?
आज विरोधियों पर लिख नहीं रहा। विरोधियों से डर नहीं लगता साहब , समर्थकों से लगता है।


आज संघी भी गांधी को अपनाने को तैयार बैठे हैं। वामपंथी कब के मजबूरीवश अपना चुके। आज़ादी के पहले अल्पसंख्यकों के लिए अछूत हो चुके गांधी आज़ाद भारत में उनके लिए सहारा हो गए , कम से कम आरंभिक वर्षों में। नेहरू समर्थकों के लिए गांधी श्रद्धापुरुष बने रहे। समाजवादियों ने भी उनको सम्मान दिया। गांधीवादी तो थे ही।

अपनाने की मजबूरियों की बात को किनारे कर दें तो क्या लगता है ? यही न , कि गांधी संघी भी थे , वामपंथी भी , अल्पसंख्यक समर्थक , समाजवादी और गांधीवादी भी। और आस्तिक और नास्तिक दोनों।

ऐसा कैसे हो सकता है ?

या तो यह व्यक्ति मल्टीप्ल पर्सनाल्टी डिसऑर्डर का शिकार था या फिर अवसरवादी। या एक समग्र इंसान जिसकी बातों को अपने हिसाब से हमने उपयोग किया।

कोई सिर्फ उनके क्रिस्चियन मिशनरियों के विरोध को अपनाता है तो कोई धर्मनिरपेक्ष तत्व को। कोई गौहत्या विरोधी रूप को दिखाता है तो कोई गौहत्या पर पाबन्दी न लगवाने के समर्थन में। कोई सिर्फ अार्थिक सिद्धांत को उद्धृत करता है तो कोई अम्बेडकर विरोधी छवि को भुनाता है। कोई "अंतिम आदमी तक स्वराज " को प्रदर्शित करता है तो कोई पूंजीपति समर्थक छवि दिखाता है। कोई "राम मंदिर " तक में उनका प्रयोग करता है तो कोई "राम मंदिर" के विरोध में। और कोई बस सफाई करवा के खुश होता है।

अपने अपने गांधी।

सवाल फिर वही - किसके गांधी ?

शायद गांधी किसी के नहीं हैं इनमे। गांधी स्वयं अपने भी नहीं थे। न गांधी को हिन्दू धर्म से अलगकर समझा जा सकता है , न ही उन्हें सर्वधर्मसमभाव से जुदा किया जा सकता है। न आधुनिकता के साँचे में उन्हें देखा जा सकता है , न ही परंपरानिष्ठा में ढाला जा सकता है। न ही क्षद्म आस्तिकता और न ही क्षद्म नास्तिकता सही दृष्टि से देख सकती है।

सच सबमे है , किसी भी विचारधारा के हों। पर पूर्ण सत्य कोई नहीं। यदि आप अपनी विचारधारा (?) , यदि हो , ( अमूमन होती नहीं , बस नक़ल करते हैं ) , को पूर्ण सत्य मानते हैं तो अफ़सोस , कभी सत्य जान नहीं पाएंगे।

क्या लिखूं और !! होड़ लगी है यहाँ बाजार में। पब्लिक के हिसाब से पोलिश करो , पक्का बिकेगा।

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