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मंगलवार, 18 सितंबर 2012

सवर्णों से इतनी चिढ....क्यों ?



बात उन दिनों की है जब मैं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का छात्र हुआ करता था. पढ़ते-लिखते, खेलते, मस्ती करते दिन अच्छे बीत रहे थे. एक अखिल भारतीय अंतर-विश्विद्यालयीय सांस्कृतिक उत्सव का आयोजन होने वाला था बंगलोर में. भिन्न-भिन्न विधाओं के लिये प्रतियोगियों का चयन होने लगा. मेरा भी नाम आया क्विज़ प्रतियोगिता के लिये क्योंकि मैने विश्वविद्यालय स्तर पर अच्छा प्रदर्शन किया था. क्विज़ में मेरा एक पार्टनर था जो कि अनुसूचित जाति से सम्बंधित था. मेहनती था, पढता भी अच्छा था. टीम चुनी गयी. मेरा नाम था. मैं तैयारी में जुट गया. मुझे क्या पता था कि एक बड़ी राजनीति चल रही है चयन को लेकर. अंतिम चयन सूची जब सामने आई तो देखा कि मैं नदारद था और मेरी जगह उसका नाम था. बहुत बुरा लगा उस समय. बी एच यू की टीम भी अंतिम स्थान पर रही. बाद में मुझे पता लगा कि क्या खेल था. विश्वविद्यालय के सारे अनुसूचित जाति के छात्र एक हो गये थे. छात्र-अधिस्थाता और डीन के पास बार-बार जाकर उस लड़के की अनुशंसा और मेरी बुराई कर दबाब डालना उन छात्रों का काम था. मेरी कोई पैरवी न थी. मुझे ये बुरा नहीं लगा कि उसका चयन हुआ. मुझे बुरा लगा अपने हटाने के तरीके पर.

बहुत अवसाद में रहा था. एक क्षोभ सा उभर आया था उन छात्रों पे, या यूँ कहूँ कि कि सारी अनुसूचित जाति पे. आखिर 20-22 साल का विद्यार्थी ही तो था मैं, एक अविकसित मस्तिष्क. बाद में मुझे लगा कि मेरा क्षोभ बिलकुल ही जायज़ न था. क्यों ? मुझे लगा कि मेरे पास भी अगर इतनी पैरवी , अनुशंसा होती तो शायद मैं भी यही करता. यह भी हो सकता था कि मैं उसे साफ-साफ शब्दों में हटने को कहता. उसने तो ऐसा न किया.

अब मैं समझता हूँ कि कोई सम्प्रदाय, समुदाय, या कोई मनुष्य मूलतः बुरा नहीं होता. उसे बुरा बनाती है शक्ति, सत्ता, जनसमर्थन. इनके मद से अंधा कोई इंसान, कोई भी, कुछ भी कर सकता है. अखंड रामायण की एक कथा है. एक मनुष्य से अकारण पिटे कुत्ते ने राम की शरण ली. राम ने उस कुत्ते के आरोप सत्य पाये. पूछा कि बता कि इसे क्या दंड दिया जाय. कुत्ते का प्रत्युतर था कि प्रभु, इसे महंत बना दें. राम चौंके और पूछा-क्यों ? कुत्ते ने कहा-क्योंकि मैं भी पिछले जन्म में एक महंत था. कथा का सारांश यही है कि सत्ता, शक्ति किसी भी मनुष्य को पतित कर देती है चाहे वो एक मंदिर का महंत ही क्यों न हो. फिर तो वो एक साधारण मनुष्य ही था जिसने मुझे बाहर किया.

आज लोग किसी भी बात पर सम्पूर्ण समुदाय को गाली दे देते हैं. अक्सर देखता हूँ कि की सवर्णों को गाली दी जाती है कि तुमने हमें सदियों तक दबाये रखा, अभी बदला पूरा नहीं हुआ है. भाई मेरे, सवर्णों ने आपको नहीं दबाया, दबाकर रखा आपको सवर्ण मानसिकता ने. तो इस मानसिकता को समाप्त करो न, सवर्णों से क्यों चिढते हो. याद रखो इन्हीं सवर्णों की सवर्णता-रहित मानसिकता का अवर्णो के उत्थान में बहुत ही बड़ा योगदान है. स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, गाँधी सवर्ण ही तो थे. स्वामी दयानंद ने तो अम्बेडकर के बहुत साल पहले ही वेदों के द्वार अवर्णो के लिये खोल दिये थे.

आज स्थिति बदल चुकी है, बहुत ही बदल चुकी है. और यह अकेले अवर्णो ने नहीं किया. सवर्णों ने स्वेच्छा से अपनी श्रेष्ठ होने की मानसिकता का परित्याग किया है. कोई भी कानून, कोई भी सांविधानिक धारा असरदार सिद्ध नहीं होती यदि उन्होने ऐसा नहीं किया होता. हाँ कुछ सवर्ण मानसिकता शेष है, हो सकती है; पर वक्त के साथ, पुरानी पीढी के साथ, वो भी इतिहास का हिस्सा बन जायेगी. और वो वक्त ज्यादा दूर नहीं.

आरक्षण सामाजिक उत्थान के लिये मिला है, अतः सामाजिक आधार पर आरक्षण जायज है. शिक्षण संस्थानों में भी आरक्षण जायज है क्योंकि अच्छे शिक्षण संस्थान उनका स्तर और भी उठा सकते हैं.  मगर  किसको, यह एक बड़ा प्रश्न बन चुका है. यह देखा जा रहा है कि आरक्षण का लाभ कुछ ही जातिओं तक सिमट कर रह गया है. एक 'अतिदलित' की धारणा बनी, जो बिलकुल सही है. इन अतिदलितो की स्थिति में कोई ज्यादा सुधार नहीं, आज आज़ादी के इतने सालों के बाद भी.  क्या फिर से गलत नहीं हो रहा ? हाँ, हो रहा है. जैसा सम्बंध सवर्ण और दलितों का था कभी, कुछ वैसा ही दलितों और अतिदलितो का बनता जा रहा है. इन अतिदलितो पर विशेष ध्यान देना चाहिये, न कि पढ़े-लिखे-नौकरीशुदा या फिर सांसदों, विधायकों की संतानों पर. अगर मायावती की सन्तान होती, तो क्या उसे आरक्षण मिलना चाहिये था ? मायावती भी दलित है और खेतों में मजदूरी करनेवाले मुसहर भी. दोनों की तस्वीर मस्तिष्क में उकेरिये और और जरा सोचिये कि कौन सच्चे मायनों में अधिकारी है ?

प्रश्न है-कब तक ? उत्तर मेरी समझ से है-जबतक सारे दलितों का सामाजिक स्तर सवर्णों के समान नहीं हो जाता. अभी दिल्ली दूर है, पर ट्रेन कितने स्टेशन पर कर चुकी है. अब तो अंतरजातीय विवाह भी होने लगे हैं. किन्तु फिर से कहना चाहूंगा कि अधिक समय तक आरक्षण स्वयं आरक्षण का लाभ ले चुके को हानि पहुँचायेगा. कितनों को देखा कि समर्थ होते हुये भी  मेहनत नहीं करते. जानते हैं कि उनका कुछ न कुछ अच्छा हो ही जायेगा. क्या ये उनकी मेहनत करने की क्षमता, जीवन में संघर्ष करने की शक्ति को कम नहीं कर रहा ? और क्या मेहनत न करते हुये भी फल पाना, उस सही मायने में पिछड़े की संघर्ष करते हुये भी न आगे बढ पाने की बेबसी पर अट्टहास नहीं कर रहा ?

यह भी एक मानसिकता है सवर्णों की, कि आज मैं उन दलितों के बारे में कह रहा हूँ जो शिक्षा से आज भी वंचित हैं, जो आज भी किसी के पास मजदूरी कर रहे हैं और हो सकता है कि मजदूरी करानेवाला भी एक 'दलित' हो. जी हाँ मैं उन दलितों की बात कर रहा हूँ जिनको आज भी आरक्षण का अर्थ पता नहीं.

जरा सोचिये-क्या उस घटिया तथाकथित सवर्ण मानसिकता का शिकार क्या सिर्फ सवर्ण ही हैं ?

नोट- सवर्ण और अवर्ण का प्रयोग सिर्फ संबोधित करने के लिये किया गया है. इसका कोई जातीय अर्थ नहीं.




सोमवार, 17 सितंबर 2012

बिहार और यू.पी. ही पिछड़े क्यूं


बड़ा ही जटिल प्रश्न है कि आखिर क्यों उत्तर प्रदेश और बिहार विकास की दौड़ में पिछड़ गये. गंगा-यमुना से सिंचित विश्व की सबसे ज्यादा उर्वर मिट्टी; राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, कबीर,सुफ़ीओं आदि के संस्कारों से सजी संस्कृति; और कभी अखिल भारत की राजधानी रही धरती.......क्या हो गया आखिर ?

संक्षेप में कहूँ तो सबसे पहला कारण दिखता है समाज में जड़ तक समाया जातिवाद. अब प्रश्न यह उठता है कि जातिवाद यहीं ज्यादा क्यों ? कारण यह है कि ब्राहमणवादी सत्ता का केन्द्र होने के नाते (वाराणसी इत्यादि) वर्ण व्यवस्था और उसकी अनुगामिनी जाती-प्रथा का सबसे ज्यादा प्रभाव इन स्थानों पर पड़ना स्वभाविक था, है. जाति इतनी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी कि स्वयं वर्ण या जाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि) भी उपजाति में विभक्त हो गयी और उनमें परस्पर वैवाहिक सम्बंध भी कमने लगे. हर उपजाति के अपने नेता, अपने-अपने स्वार्थ कटुता की नयी उँचाइओ को को छुने लगे. इसका असर आज भी है. इतनी ज्यादा जटिल सामाजिक व्यवस्था कहीं नहीं है. दक्षिण भारत में दो ही टुकड़े हैं समाज के मूलतः-ब्राह्मण और अब्राह्मण. पंजाब, हरियाणा, हिमाचल इत्यादि में सिखों का प्रभाव है, शायद इसलिये वहाँ इसका प्रभाव कम है.

दूसरा कारण था ईस्ट इंडिया कंपनी. संयुक्त बंगाल-बिहार-ओडिशा की दीवानी का अधिकार मिला था कंपनी को. यहीं से शुरु हुआ शोषण का सिलसिला. नबाब भी कर वसूलता था और कंपनी भी. सारे उद्योग-धंधे बंद हो गये क्योंकि देशी व्यापारिओं को हर जगह महसूल देना पड़ता था जबकि अंग्रेज़ इससे परे थे. यह वही समय था जब भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अकाल पड़ा था और लाखों लोग भूख से मारे गये थे. कभी कुटीर उद्योग का बड़ा केन्द्र रहा यह क्षेत्र कभी भी इससे उबर नहीं पाया.

तीसरा कारण है संसाधनों का विकेन्द्रीकरण. संसाधन से धनी बिहार के संसाधन बिहार में ही नहीं पाये. कलकत्ता, मुम्बई आदि से यहाँ के संसाधनों का संचालन होने लगा, आज भी झारखण्ड से हो रहा है.  देश में कोई भी चीज़, कोई भी संसाधन कहीं पर भी होती हो, इकट्ठा तो एक ही जगह होनी थी चाहे कलकत्ता में या फिर मुंबई में. विदेशी व्यापार जो चलाना था ईस्ट इंडिया कंपनी को. यहीं से शोषण शुरू हुआ बिहार जैसे संपन्न प्रदेशों का. कलकत्ता और मुंबई में रहनेवाले अंग्रेज और व्यापारी आमीर और अमीर होते चले गये, मुंबई महानगर बन गया. बिहार पिछड़ गया. ये आंतरिक उपनिवेशवाद का नया पहलू था. ये आज भी बदस्तूर जारी है. जैसा कि मैने पहले कहा कि खनिज यहाँ के, खनिज निकालनेवाले यहाँ के, पर व्यापारी बाहर के, बाज़ार बाहर के. संपन्न कौन होता ? 

यह माना जाता है कि आज़ादी के बाद बिहार और उत्तर प्रदेश को एक मानक  चिन्ह बना दिया गया था अन्य राज्यों के लिये जो ज्यादा पिछड़े थे. शायद यह प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि पर  दिए विशेष ध्यान का असर था .  बाद में यही देखकर राज्य को केन्द्र से सहायता मिलनी कम हो गयी ( मैने इसे फ्रंटलाइन में पढ़ा था कभी). अन्य राज्य बढते गये,बिहार पिछड़ता गया.

भारी उद्योग भी कम खोले गये. जो भी केन्द्र सरकार ने खोले, अब अधिकांशतः सफेद हाथी बन चुके हैं, या फिर बंद हो गये. केन्द्र ने फिर कभी ध्यान नहीं दिया. अर्थव्यवस्था सिर्फ कृषि पर आधारित रह गयी, उसपर भी जब बिहार राज्य की आधे से ज्यादा कृषि-योग्य भूमि बाढ के चपेट में हो. हरित क्रांति के समय भी यह क्षेत्र उपेक्षित रहा था. सिंचाई की व्यवस्था बिल्कुल थप थी, आज भी है.विभाजन के बाद बिहार कृषि -प्रधान ही रह गया है . उसपर भी राज्य की अधिकांश भूमि हर साल जल-प्लावन का शिकार बनती है. हिमालय के शिखरों से निकली नदिओं के उत्पात का कोई तोड़ अभी तक ढूंढा न जा सका है . उसपर भी केंद्र की इस मसले पर उदासीनता . नेपाल के इस मामले में शामिल होने से बिहार सरकार स्वयं कुछ नहीं कर सकती . दुःख की बात यह है कि इतने जल स्रोतों के होने के बावजूद इसका उपयोग पनबिजली बनाने में करना एक घाटे का सौदा है क्योंकि बिहार समतली क्षेत्र है.
एक और बाढ़ आती है तो दक्षिण  बिहार सूखे से ग्रस्त रहता है . ऊपर से दक्षिण बिहार में सिंचाई की सुविधाएं भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं .  पर हाल फिलहाल में कुछ सुधार हुये हैं. इस साल हुई 250 mt उपज के लिये इसी क्षेत्र को उत्तरदायी माना जा रहा है.
नक्सल हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में से हैं यह राज्य. लगभग पूरा बिहार और उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर इलाके पूरी तरह से इस समस्या से ग्रसित हैं.

असमर्थ राजनीति भी एक अहम कारण है जिसका उदाहरण देने की जरूरत नहीं है.
लोगों के मुंह से सुना है कि सारी ट्रेन बिहार को ही जाती हैं. बिल्कुल गलत है. उत्तर बिहार को अगर ट्रेन की संख्या से तौलें, तो सम्पूर्ण भारत के निम्नतमों में शुमार होगा. दूसरी बात ट्रेन जरूरी भी है क्योंकि नक्सल प्रभावित क्षेत्र अभी भी कटे हैं. ऐसा भी नहीं की ट्रेन सारी बिहार से खोली गयीं बिहार के मंत्रिओं के द्वारा. अब कोलकाता वाली ट्रेन तो बिहार होकर ही जायेगी न. कुछ मुगलसराय वाली ट्रेन को थोड़ा आगे बढ़ा गया.

लोगों का आरोप है कि कुछ भी होता है और सारे बिहारी एकजुट हो जाते हैं. यह सरासर मिथ्या है. मैने आजतक बिहार के संगठन कम ही देखें हैं. बी एच यू से पढ़ा हूँ. बहुत सारे राज्यों के संघ थे, पर बिहार बिल्कुल नहीं. हाँ, ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, कुर्मी आदि के संगठन मिल जायेंगे.

बिहार के लोग कानून बड़े प्यार से तोड़ते हैं . मगर कमोबेश यही स्थिति सारे देश की है . एक और मिथक बन सा गया है कि बिहार से ही सबसे ज्यादा आईएएस आईपीएस  हर साल निकलते हैं . यह आत्मप्रवंचना है. ऐसे दावे करनेवालों से मुझे यही कहना है कि आप  upsc की वेबसाइट खोल कर देख लें .इस क्षेत्र में दक्षिण भारत के लोग काफी आगे हैं . बिहार की शिक्षा का  कबाड़ा कर दिया अंधाधुंध खुले घटिया महाविद्यालयों ने . मानों डिग्री मुफ्त में बंट रही हो . मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता जब ऐसे ही किसी कॉलेज से मास्टर डिग्री लिए को दिल्ली की गलियों में टमाटर बेचते देखता हूँ . कहने को तो पीएचडी भी कर लिया , पर दसवी कक्षा के बच्चों को पढ़ाने की कूवत भी नहीं . 

अब स्थिति पहले से काफी हद तक सुधरी  है . नीतीश कुमार के परिश्रम को नकारा  नहीं जा सकता . अपराध , किडनेपिंग काफी कम हो चुके हैं . जिस जगह लोग शाम के सात बजे निकलते नहीं थे और मार्किट भी  सात बजते ही बंद हो जाते थे , वहां  अब ठाठ से घूमते हैं .नौकरशाही पर सरकार का नियंत्रण बना हुआ है . डॉक्टर , शिक्षक अदि अब दिन भर ड्यूटी बजाते हैं . नीतीश का विरोध भी हुआ है , मगर वह ज्यादातर राजनितिक है और लोगों की इस भावना का प्रतीक है कि और विकास क्यों नहीं हुआ . खैर , नितीश रहें न रहें , हारें या जीतें ,  किसी  भी पार्टी की सरकार बने , मुद्दा विकास ही रहेगा . यह एक शुभ संकेत है . 

बिहार का विकास हो , अन्य  राज्यों भी आगे बढ़ें . देश की  सर्वांगीण  प्रगति हो .

छोटा कुत्ता, बड़े कुत्ते


देख श्वान को आते पथ पर,
रुका व्यक्ति एक उस ओर मुख कर.
मन ही मन बड़ा हरषाया.
सोचा . मनोरंजन का अवसर हाथ आया.
कुत्ता था छोटा, काटने का भी डर न था.
सिवा छोटे नख-दंतो के कोई शर न था.
उचित अवसर देख किया उसने एक त्वरित प्रहार.
जा गिरा कुत्ता खड्ड में, टूट गयीं पसलियाँ-हाड़.
क़िकियाता हुआ कुत्ता भागा,
व्यक्ति ने लगाया पौरुषीय ठहाका.
विजय दृष्टि से देखा चारों ओर, कई और मुस्कुरा रहे थे.
जाने कहाँ से इस विहंगम दृश्य को देखने आ पड़े थे.
मौन की चादर में लिपटी थी खुशी,
और कई नैनों से मिलती रही बिन माँगे स्वीकृति.
किंतु हटे अचानक सभी, सब अपनी राह को जा रहे थे.
क्या हुआ उस व्यक्ति ने सोचा,
देखा-सामने से कई बड़े कुत्ते आ रहे थे.

घास की राजनीति


अहहा हा, क्या बात है !! लोगों को अभी भी कांग्रेस घास यानि parthenium और pl-480 याद है. मगर ये कैसे भूल गये कि ये हमारी मजबूरी थी. देश में खाने को अन्न नहीं था, सूखे पे सूखे पड़े जा रहे थे, कोई हमारी मदद को तैयार नहीं था. जो मिल जाए, वही सही वाली बात थी. parthenium को कौन देखता, घटिया स्तर के अनाज के लिए मार हो रही थी. quarantine पर कौन ध्यान देता, जब पूरा का पूरा दरवाजा खुला था कि कुछ मिल जाए. हरित क्रांति याद नहीं आती. लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी ने विपक्ष के विरोध के बावजूद (खर्च बढ़ेगा) मेक्सिकन गेंहू आयात किया था और रासायनिक उर्वरक की खरीद पर  राजकोष से व्यय किया था. ये वो प्रयत्न था जिसने भारत को खाद्य-याचक से खाद्य-निर्यातक में बदल दिया. कहाँ 1950 का 50mton और कहाँ 2011 का 250mton. 

देश तभी आगे बढ़ सकता है जब सब मिल कर काम करें. हर बात पे टांग खींचना कहाँ की देशभक्ति है. कांग्रेस ने ग़लतियाँ की हैं. आपातकाल उनमें से एक है. पर इसके लिए सही कामों को नहीं भुलाया जा सकता. चलिए, कांग्रेस के एक-एक कारनामों को पलटते हैं जैसे : बैंक का राष्ट्रीयकरण ख़त्म हो (बैंक अधिकारी सोचे) , राजाओं के प्रिवी पर्स की बहाली हो ( पैसे कौन हम आयकर से भरेंगे ) , हरित क्रांति ख़त्म हो ( अफ़सोस, ये अब नहीं हो सकता ) , बांग्लादेश फिर से पाकिस्तान में जा मिले ( भयि मैं तो ये नहीं चाहता ). 

भ्रष्टाचार किसी व्यक्ति-विशेष के अंदर होता है, न कि किसी विचारधारा के. क्या बंगारु लक्ष्मण के भ्रष्ट्र होने से सारी भाजपा खराब हो गयी ? नहीं ना. इसमें भी वाजपेयी जैसे लोग हैं.
भारत 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद लगे प्रतिबंधों को तभी सह सका जब देश में खाने का अन्न था. आज हम-आप तभी प्राइवेट सेक्टर में सॉफ्टवेर इंजिनीयर और एग्ज़िक्युटिव हैं जब 1992 के आर्थिक सुधारों ने विदेशी निवेश का रास्ता खोला था. बाद में आई किसी सरकार ने चाहे वो वाजपेयी की हो या गुजराल की, सभी ने इसको आगे बढ़ाया.
किसी 1960 के ग़रीब का चेहरा याद कीजिए और parthenium . और हाँ उस ग़रीब का धर्म भी याद कीजिएगा. नहीं याद आएगा, क्योंकि ग़रीबों का एक ही धर्म और एक ही दल (पार्टी) होता है-भूख.

जिन्ना से ज़्यादा मौलाना आज़ाद मक्कार!


हमारे एक आदरणीय ब्लॉगर मे हाल में ही मेरे एक ब्लॉग पर बड़ी ही अजीब टिप्पणी की थी. वो कुछ इस तरह से है- आपने इस लेख में जिस मौलाना आज़ाद का ज़िकरा किया है, बह जिन्ना से ज़्यादा मक्कार था. जिन्ना तो भारत का एक टुकड़ा लेकर संतुष्ट हो गया, पर यह मौलाना अबुल कलाम आज़ाद तो पूरे भारत को ही पाकिस्तान बनाना चाहता था. ऐसा इसने अपनी किताब में लिखा है. इसीलिए यह गाँधी का साथ देने का ढोंग करता रहा और गाँधी को मूर्ख बनाता रहा.
हद तो तब हो जाती है जब जिन्ना जैसों को आज़ाद से उपर रखा जाता है. क्यों भई, जिन्ना ने द्विराष्ट्र का सिद्धांत दिया था और मौलाना आज़ाद ने एक राष्ट्र में विश्वास जताया था इसलिए. या फिर जिन्ना गाँधी के विपक्ष में था और आज़ाद पक्ष में इसलिए. हाँ जिन्ना का द्विराष्ट्र सिद्धांत कुछ लोगों को बड़ा भाया था, दो कौमे, दो धर्म जो अलग हो रहे थे. हाँ अगर एक भारत रहता तो यहीं पाकिस्तान बन जाता. और इसलिए मुस्लिम लीग और जिन्ना का कभी भी विरोध नहीं किया. मिलती विचारधारा थी ना. एक मुस्लिम राष्ट्र और एक हिंदू राष्ट्र. एकता की बात करनेवाले तो देशद्रोही थे, हिंदू व मुस्लिम राष्ट्र बनने की राह में बाधा थे. इसलिए मुस्लिम लीग की तरह  राष्ट्रीय मुख्यधारा के संघर्ष को कमजोर करने का काम किया. कहाँ बात आज़ादी पाने की हो रही थी और कहाँ हिंदू व मुस्लिम राष्ट्र की बात उठा कर जनमानस को अलग ही दुनिया में पहुँचा दिया.

और शायद इसलिए कुछ देशभक्तों पर देशद्रोही होने का आरोप लगाया जाता है कि उनके कारण भारत हिंदू राष्ट्र न बन सका. आज़ाद भी उनमें एक होंगे. उन्हें तो पाकिस्तान चले जाना चाहिए था विभाजन के बाद. काहे का हिंदू राष्ट्र भाई, कौन धर्म का पालन करता है. हत्या करके लोग देशभक्ति की बात करते हैं, दारू पी के लोग मानवता की बात करते हैं, दफ़्तर में घूस लेकर लोग भ्रष्टाचार, अन्ना, रामदेव और कॉंग्रेस की बात करते हैं.

India wins freedom में कहीं ऐसी बात नहीं लिखी जिसे हम राष्ट्र-विरोधी कह सकें. मौलाना आज़ाद अकेले न थे एकत्व बनाए रखने की जंग में. गाँधी, बोस, भगत सिंह, नेहरू, पटेल आपस में हल्का वैचारिक मतभेद होने के बावजूद इस मसले पर सब साथ थे. गाँधी को छोड़े, सुभाष को पढ़े. हिंदू राष्ट्र का कभी समर्थन नहीं किया. भगत सिंह, ने तो अपने आदरणीय लाला लाजपत राय से भी इस मुद्दे पे असहमति जताई. पटेल और हिंदुत्ववादी लोगों का 36 का आँकड़ा जगजाहिर था. मैं ये बातें ऐसे ही नहीं कह रहा, मेरे पास तथ्य हैं, मैने इन लोगों को पढ़ा है.

मौलाना आज़ाद से तो किसी की कभी अनबन नहीं हुई. सब साथ एक उद्देश्य के लिए लड़े. ये महापुरुष हम लोगों से ज़्यादा समझदार थे, उन्हें तो कभी आज़ाद में मक्कारी नज़र नहीं आई. हाँ ये साथ कुछ लोगों को रास नहीं आया, आता. सारे हिंदू राष्ट्र के खिलाफ थे ना, इसलिए. और शायद इसलिए आजकल लोग देशभक्ति और देशद्रोही के सर्टिफिकेट बाँटते चलते हैं.

दूसरे धर्म का कोई साथ नहीं देता तो कहते हैं देशद्रोही है, पाकिस्तानी. साथ देता है तो कहते हैं मक्कार है, कोई और छुपा लक्ष्य होगा. वाह रे न्याय !
आशा है कि लोग व्यक्तिगत आक्षेप नहीं समझेंगे.

दूसरे का धर्म


बड़ी ही बुरी परिस्थिति से गुजर रहा है हमारा देश. असम हो या मुंबई, बंगलोर हो या दिल्ली, कहीं से भी समाचार अच्छे नहीं. सहिष्णुता और सहजीविता की भावना मानो कि ख़त्म ही हो गयी हो. समाज टुकड़ों में बँटता जा रहा है. और हम ! हाँ हम, अखाड़े में भिड़ते दो दलों को देख, क्षमा करें, ग्लॅडियेटर को देख तालियाँ पीटते, फब्तियाँ कसते मज़े ले रहे हैं.
हमें औरों की बुराइयाँ दिखती हैं, अपनी तो देखना भी नहीं चाहते. हमें दूसरा धर्म लिंग-पूजक लगता है भले ही इसका प्रतीकात्मक अर्थ पता नहीं. हमें दूसरा धर्म बुतपरस्त दिखता है, भले ही इसका लक्ष्य पता नहीं. और हमें पर-धर्म हिंसा को बढ़ावा देनेवाला जेहादी लगता है, भले ही हमने मूल पुस्तक मूल भाषा में ना पढ़ी हो. हम एक दूसरे के ग्रंथों को, एक दूसरे के आराध्यों को गालियाँ देते हैं, भले ही सबका मालिक एक हो. गालियाँ हमारे ही संस्कारों को तो दर्शाती हैं और एक तरह से ये हमारी हार को लक्षित करती हैं.
ग्रंथ एक होते हैं, व्याख्याएँ अनेक. निर्भर करता है यह उस व्यक्ति पर कि किस सोंच, किस परिस्थिति में वह अद्ध्ययन कर रहा है. रावण से बड़ा विद्वान था कोई ? नहीं. क्या किया उसने. वेदों की ग़लत व्याख्या व विवेचना की. उसी वेद को राम ने भी पढ़ा और भगवान कहलाए, और उसी वेद को पढ़कर रावण दुष्ट कहलाया. एक बात और, वो रावण इतना विद्वान था कि राम ने कहा था-लक्ष्मण रावण से भी सीख लो. यही हो रहा है आजकल, मूल संस्कृत में वेद पढ़े नहीं और जाकिर नायक जैसे लोग ग़लत व्याख्या करने लगे. मूल अरबी में क़ुरआन पढ़ा नहीं, और मनचाहा हिन्दी या उर्दू अनुवाद जो की इंटरनेट पर आसानी से मिलता है, पढ़कर क़ुरआन बाँचने लगे. सदभावना तो नहीं बढ़ सकती इससे ना. खुद के घर साफ नहीं और चले हैं हम पड़ोसी की गंदगी देखने. दिनकर ने ठीक ही लिखा है:
अपनी ग़लती नहीं सूझती, अजब जगत का हाल |
निज माथे पर नहीं सूझता सच है अपना भाल ||
वसुधैव कुटुम्बकम को भूल गये हैं हम. बस आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चलता रहता है. इस अंडे-मुर्गी की पहेली का कोई अंत नहीं. स्वामी विवेकानंद ने वेदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामिक शरीर की कल्पना की थी. इस बात को कोई याद नहीं करता या नहीं करना चाहता. दारा शिकोह ने वेदों का फ़ारसी में अनुवाद किया था ताकि लोग पढ़ सकें, इसे भी लोग भूल चुके हैं. याद आता है हमें ग़ज़नवी, गोरी, चंगेज ख़ान. क्या सकारात्मक सोंच है हमारी !
 आज़ादी की लड़ाई में मौलाना आज़ाद को भूल गये जो इस्लाम के बहुत बड़े जानकार थे. उन्होनें तो झगड़ना नहीं सिखाया जबकि इसी क़ुरआन को उन्होनें भी पढ़ा था. बादशाह ख़ान को भूल गये, अशफ़ाकउल्ला ख़ान, जाकिर हुसैन तो दिमाग़ में ही नहीं रहते. क़ुरआन इनकी भी पुस्तक थी.

हम और पढ़े ! कोर्स की चार किताबें और कुछ डिग्रियाँ ले लेने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता. हम well-informed हैं, well-educated नहीं. क्योंकि सही शिक्षा में मानवता का पुट होता है, प्रेम का रस होता है, नफ़रत की मिर्ची नहीं. दंगे ज़्यादातर वहाँ होते हैं जहाँ ग़रीबी और अशिक्षा का डेरा होता है. कोई सच्चा संत कभी दंगे की बात नहीं करता. और विडंबना भी देखिए, दंगे में पिसने वाले यही ग़रीब और अशिक्षित लोग होते हैं जिनका सबसे बड़ा धर्म भूख होती है.
एक अनुरोध है अपने हिंदू और मुस्लिम भाईओ से. एक दूसरे के धर्म पर फब्तियाँ ना कसें. एक ऐसा माहौल बनाएँ कि लगे कि वैमनस्व था ही नही. एक बीड़ा उठाएँ कि अपने-अपने धर्म की कुरूतीओं को दूर करना है और एक दूसरे का सम्मान करते हुए देश और समाज को विकसित करना है.
धर्म के नाम पर युद्ध तो मध्ययुगीन मानसिकता का द्योतक है, देश और समाज का कल्याण कैसे हो, इसपर बहस होनी चाहिए. धर्म व्यक्तिसूचक शब्द है, इसे व्यक्ति-विशेष पर ही छोड़ दें. मार्क्स ने धर्म को अफ़ीम की संज्ञा दी थी और भगत सिंह ने इसी को अपनाया था. निश्चय ही उनका तात्पर्य समाज-विशेष के धर्म से था, न की किसी एक मनुष्य के. 

अपने ही देश में घुसपैठिए!


एक बार फिर से अपमान. बिहारी घुसपैठिए हैं ? क्या अपने ही देश में यही सुनना बाकी रह गया था ? और क्या मराठी मानुष का ही सिर्फ़ है महाराष्ट्र ? संविधान-प्रदत्त मौलिक अधिकारों का खुले-आम हनन हो रहा है और अपराधी, क़ानून तोड़नेवाले सरेआम सड़कों पर नफ़रत का नंगा नाच कर रहे हैं. सरकार से उपर हैं कुछ लोग यहाँ, तब भी जंगल राज कहीं दूर बिहार में है ? इन असामाजिक तत्वों को जनसमर्थन प्राप्त है महाराष्ट्र में, फिर भी जाहिल लोग तो बिहार के ही हैं, होते हैं, क्यों ?

स्थानीय नेता कहते हैं कि इन यू पी, बिहार के भाइयों ने उनका रोज़गार छीना है. क्यों भाई, छीना कैसे, ये उनका हक है. और तो प्रतिस्पर्धा की बात है कि स्थानीय लोगों से आगे निकले. ज़्यादा काम किया, अच्छा काम किया, सस्ते में भूखे पेट रहकर काम किया.

मुंबई सिर्फ़ मराठी की नहीं. देश की आर्थिक राजधानी है ये. कोयला होता है बिहार-झारखंड में, मुख्य कार्यालय है कोलकाता में, और बोली और बिक्री लगती है मुंबई में. यही कहानी लौह-अयस्क और अन्य खनिज पदार्थों के साथ भी मिला जुला कर लागू होती है. क्या बिहारीओं ने कभी कहा कि कार्यालय और बाज़ार बिहार में लाओ ? नहीं, क्योंकि वो जानते हैं कि इस संपदा पर संपूर्ण देश का हक है. यहीं स्टील बनाकर टाटा मुंबई में धन अर्जित करते हैं, ताज होटल बनाकर मुंबई सुंदरता बढ़ाते हैं. इसपर भी कहनेवाले कहते हैं कि बिहारी मुंबई को गंदा कर रहे हैं.

बिहार में कभी " बिहारी " भावना थी ही नहीं. लोगों के लिए तो संपूर्ण देश ही अपना था, समान था. सदियों तक यहीं से तो मौरयों और गुप्तों ने संपूर्ण देश को एक बनाए रखा था. देश में दिल्ली भी थी, पुणे भी था और कश्मीर भी . अशोक के शिलालेख इसके जीवंत गवाह हैं. पूरे देश से लोग पाटलिपुत्र आते थे कभी व्यापार के सिलसिले में और कभी काम की तलाश में. कितने तो यहीं के होकर रह गये. पर यहाँ के लोगों ने तो उन्हें कभी दूसरी नज़र से नहीं देखा. ये कहानी तब की है जब भारतवर्ष के इस भूभाग में इतनी समृद्धि थी कि मेगास्थीनीज ने पाटलिपुत्र को विश्व का सर्वाधिक समृद्धशाली नगर की संज्ञा दी थी. आज लोग कहते हैं कि महाराष्ट्र ने विकास किया है, यही उनकी ग़लती है. यही वो ग़लती है, यही वो कारण है कि बिहारी उनके यहाँ आते हैं.

मैं पूछता हूँ बिहारी लोगों को भगानेवालों से-क्या आप लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ महाराष्ट्र तक ही सीमित हो? मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में क्या आप लोग नहीं बसते हो? सिंधिया ग्वालियर में, पेशवा बाजीराव अंतिम कानपुर व बनारस में रानी लक्ष्मीबाई झाँसी में, होलकर गुजरात में........क्या आपने नहीं पढ़ा है इतिहास में ? इतिहास को छोड़िए, वर्तमान में झाँकिए क्या इन जगहों पर बसने वाले मराठी मानुष और मूल निवासी के बीच अब कोई सांस्कृतिक विभेद कर पाएँगे आप ? पानीपत के तृतीय युद्धोपरांत कितने घायल मराठा वहीं पंजाब में बस गये थे, कोई हिसाब है ? पंजाबिओं ने तो कभी उन्हें नहीं भगाया.

कुछ मराठी मित्रों का कहना है कि इन भैय्यो में तमीज़ नहीं, संस्कार नहीं, रहने का ढंग नहीं. मैं कहता हूँ कि आप अपने स्तर से क्यों देखते हैं. महाराष्ट्र के ग़रीबी रेखा से नीचे बसर कर रहे लोगों से उनका मूल्यांकन कीजिए, कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं दिखेगा. ये संस्कार, रहने का ढंग शिक्षा से आते हैं. इसमे क्या ��िहारी और क्या पंजाबी ? और ऐसा भी नहीं कि ये बिहार-यू पी के मजदूर संस्कार से रहित होते हैं. ज़रा देश से बाहर निकल कर देखिए, मौरीसस, सूरीनाम, फिजी, त्रिनिनाद इत्यादि देश इन्हीं मजदूरों की कर्मठता का गुणगान करते नज़र आएँगे.

सोचिए ज़रा कि इतनी खनिज संपदा के बावजूद बिहार पिछड़ा क्यूँ रहा. एक जबाब सामने आता है-गंदी राजनीति. सही है. पर एक पहलू पर ध्यान नहीं जाता. एक परंपरा जो अंग्रेज़ों ने चलाई थी- संसाधनों का केंद्रीकरण. देश में कोई भी चीज़, कोई भी संसाधन कहीं पर भी होती हो, इकट्ठा तो एक ही जगह होनी थी चाहे कलकत्ता में या फिर मुंबई में. विदेशी व्यापार जो चलाना था ईस्ट इंडिया कंपनी को. यहीं से शोषण शुरू हुआ बिहार जैसे संपन्न प्रदेशों का. कलकत्ता और मुंबई में रहनेवाले अंग्रेज और व्यापारी आमीर और अमीर होते चले गये, मुंबई महानगर बन गया. बिहार पिछड़ गया. ये आंतरिक उपनिवेशवाद का नया पहलू था. ये आज भी बदस्तूर जारी है. जैसा कि मैने पहले कहा कि खनिज यहाँ के, खनिज निकालनेवाले यहाँ के, पर व्यापारी बाहर के, बाज़ार बाहर के. संपन्न कौन होता ? स्टील बनानेवाले टाटा रहते तो मुंबई में ही हैं ना.

बिहार सचमुच विकास कर रहा है, करेगा ? हाल में मैं हरियाणा गया था रिसर्च के सिलसिले में. कुछ लोगों ने बताया कि इसबार फसल काटने के लिए मजदूर नहीं मिल रहे थे. स्थानीय मजदूर बहुत आनाकानी करते हैं और पैसे भी ज़्यादा माँगते हैं. जी हाँ, ये बिहारी मजदूरों के वापस स्वप्रदेश लौटने का असर था. 

अंत में, केंद्र सरकार और न्यायपालिका को इस तरह के व्यक्तव्यों पर कार्यवाही करनी चाहिए. नफ़रत के सौदागर ठाकरे जैसे लोग किसी के सगे नहीं होते. और अगर इसी तरह से इन्हें तुष्ट किया गया तो वो दिन दूर नहीं ,जिस दिन हिंसा की ज्वाला भड़क उठेगी. समानांतर सरकार चलानेवाले ये लोग वैसे भी संविधान की मूल भावना का उल्लंघन कर रहे है.

पता नहीं लोग कब समझेंगे कि वो एक भारतीय पहले हैं, बाद में मराठी, पंजाबी, तमिल, तेलगु, कन्नड़ या फिर बिहारी.

नोटः मैने ये लेख किसी वर्ग-विशेष से दुर्भावग्रसित हो नहीं लिखा है. 
धन्यवाद.

घृणा के समर्थ साधक


भाइयों, ये कोई नया धर्म नहीं है. सदियों से चला आ रहा है. इस धर्म को माननेवाले सभी संप्रदायों में, सभी पंथों मे, सभी देशों में और सभी ब्लॉग साइट्स में मिल जाएँगे. कोई विशेष अर्हता की आवश्यकता नहीं है इसमें प्रवेश पाने के लिए. इतना महान है ये धर्म कि सबके लिए इसका द्वार सदा खुला है. कोई भी आ कर किसी बड़े व्यक्ति को गालियाँ, किसी विशेष पुस्तक के अर्थ का अनर्थ इत्यादि बड़े आराम से कर सकता है. भले ही ये सत्यसाधक उसविचारधारा को समझते हों या नही, उस पुस्तक को पड़ा  हो या नहीं, 'रंगासियार 'की तरह प्रवचन देना इनका परम कर्तव्य होता है. 
 अपने देश में भी इस धर्म के बहुत सारे संप्रदाय हैं जो आपस में लड़ते रहते हैं. इस्लाम-जनित घृणा धर्म, हिंदू-जनित घृणा धर्म , गोडसे-समर्थक घृणा धर्म इत्यादि का नाम इनमें प्रमुखता से लिया जा सकता है.
अब मैं आता हूँ सनातन धर्म पर, धर्म जिसपर मुझे अभिमान है और धर्म जिसमें मैं जीना और मरना पसंद करूँगा. इस धर्म की एक बड़ी विशेषता है विभिन्न मतों और संप्रदायों का एक साथ बिना वैमनस्व के एक दूसरे का सम्मान करते हुए जीना. जब भी ज़रा सा भी कटुता बढ़ी, श्री रामचरित मानस जैसी पुस्तक हाजिर थी, पुस्तक जिसमे तुलसी दास ने राम को शिव की और शिव को राम की उपासना करते दिखा वैष्णव व शैव के झगड़े को ही समाप्त कर दिया. सनातन धर्म में सहिष्णुता और सहजीविता का प्रतिपादन किया गया है.
वेदांगों (उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण) में सत्य और अहिंसा को बड़ा स्थान दिया गया है. ये 'सत्य' साधारण नहीं अपितु स्वयं स्वैम्भु परमात्मा हैं. अहिंसा कोई बाह्य सिद्धांत नहीं बल्कि अपने आप को उन जानवरों की श्रेणी से उपर उठने का मार्ग है जिनके पास सोंच की शक्ति सीमित है. अरे हिंसा तो किसी भी पशु की प्रवृति होती है, मनुष्य वो होता है जो इससे उपर उठ सके. एक बात और इसे कायरता से न जोड़ें. कायर इसलिए झुके होते हैं क्योंकि वो डरे और हिंसा करने में अक्षम होते हैं. दूसरी ओर विनम्र और अहिंसक इसलिए झुके होते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि हिंसा कमजोर का साधन होता है. ये सिर्फ़ किताबों में पढ़ी जानेवाली बातें नहीं थीं, अपितु इन्हे जीवन के हर एक भाग, उतार-चढ़ाव में उतारा जाना ही उन ऋषि-गण का संदेश था.
बात बुद्ध की हो तो उन्होने अहिंसा को धर्म माना था. ये उस कर्मकांड और ब्राह्मानत्व के प्रति सिंघनाद था जिसकी रोटी समाज का सीमित वर्ग सदियों से वैदिक धर्म के नाम पर ख़ाता आ रहा था. विवेकानंद ने बुद्ध को सबसे बड़े योद्धा की संज्ञा दी है. सोचिए, एक अहिंसा का प्रतिपादक और योद्धा( युद्ध लड़नेवाला) !!! इतने बड़े योद्धा कि अपनी हत्या का प्रयास करनेवाले देवदत्त को हर बार क्षमा किया.

गाँधी ने इसी अहिंसा को अपनाया था. वे लोगो के मानसिक स्तर को बदलना चाहते थे. वो जानते थे कि यदि संपूर्ण समाज अहिंसक हो जाए तो उसके आत्मबल से अंग्रेज क्या विश्व की कोई भी शक्ति भी सामने टिक नहीं पाती. यहाँ तक कि वो अँग्रेज़ों के विचार भी परिवर्तित करना चाहते थे, उनके तम को मारना चाहते थे, न की उन्हे. उनके बार-बार आंदोलन वापस लेने का कारण यही था कि जनता का आत्मबल हिंसक प्रवृति के कारण कम पड़ जाता था.

वैचारिक शक्तियों में धर्मांध उन्हे कभी पीछे नहीं कर सकते थे और ना ही धर्म के मामले में. शायद इसी खीस की परिणति उनकी हत्या ���ें हुई. कायरता की पराकाष्ठा पर हो चुकी थी. बहुत मन-गर्हन्त आरोप लगाए जाते हैं, बेसिरपैर, ऐसे आरोप जिनका आधार घृनावलंबी एक पथभ्रष्ट्र की ज़ोर-तोड़ कर बनाई गयी बातों को और उसकी पुस्तक को देते हैं. सत्य सदा विनम्र और निश्चल होता है. ज़रा इस पुस्तकांश की बातों को तो देखें, हसी आती है कि ये इतिहास के सर्वमान्य सत्य को भी झुठला कर कितने ढीठ से खड़े हैं. ये उन पटेल, सुभाष, भगत सिंह का नाम उनके विरुद्ध लाते हैं जो कि कभी थे ही नहीं. विचारों में तनिक विरोध होते हुए भी उनमे एक दूसरे के प्रति सम्मान था, प्रेम था. और तो और इन सारे महापुरुषों ने धर्मांधता और कट्टरता का प्रखर विरोध किया था. हिंदुत्व का विरोध किया था, हिंदू धर्म का नहीं. क्या गोडसे सुभाष से महान था ? क्या गोडसे पटेल से महान था ? क्या गोडसे तिलक से महान था ? और क्या गोडसे अंबेडकर और भगत सिंह से महान था ? जबाब दे. अगर नहीं तो आप इनकी लेखनी और इनके वक्तव्य को छोड़ उस गोडसे को क्यूँ पढ़ते हैं. इनमें कहीं गाँधी से घृणा नहीं सिखाई जाती. और अगर आपका जबाब हाँ है तो एक बात साफ है कि आपको देश के प्रति त्याग करनेवाले की इज़्ज़त नहीं.

इसी हिंदुत्व व इस्लामीकता ने देश को उस समय झकझोड़ा जिस समय सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी एकता की
. मुस्लिम डर रहे थे कि उन्हे आज़ाद हिन्दुस्तान में हिंदुओं के अधीन रहना पड़ेगा. इस बात की पुष्टि कुछ लोगों के वक्तव्य ने और कर दी-आदर मुसलमानों को हिन्दुस्तान में रहना है तो हिंदुओं के अधीन रहना पड़ेगा, उनके रीति-रिवाज मानने पड़ेंगे. पहले से ही अँग्रेज़ों के द्वारा अलग हो रहे मुस्लिम और अलग हो गये. उधर भी सिखाया गया कि हिंदू तुम्हे जीने नही देंगे और अगर पहले ऐसा राज चाहिए तो अलग मुल्क बनाना पड़ेगा. विभाजन एक दिन की कहानी नहीं थी. विभाजन था सांप्रदायिक संघर्ष की परिणति, विभाजन था गाँधी की असफलता हिंदू-मुस्लिम को एक करने में ( धर्मान्धों के कारण), विभाजन था तथाकथित धार्मिक नेताओं की मूर्खता जिन्होनें कभी धर्म का मर्म समझा ही नहीं, और विभाजन था अँग्रेज़ों की 'फुट डालो और शासन करो; नीति का परिणाम किसके भुक्तभोगी आज भी हम बने जा रहे हैं.  

अरे घृणा के साधकों, जब भगवान एक है तो एकत्व लाने का प्रयत्न्न करो, क्यों विभेद बढ़ाते हो. कहोगे-हम तो कुछ नहीं करते, बुरा तो वो सामनेवाला है. अगर मान भी लो इस बात को, तो उनके विचार बदल कर दिखाओ, न ली नफ़रत फैलाओ. नफ़रत सिर्फ़ नफ़रत को जन्म दे सकती है और ये कोई समाधान नहीं है शांति स्थापित करने का.  

गाँधी और गाली

क्या आपने कभी गाँधी को गाली दी है ? आशा करता हूँ कि दी ही होगी. यदि नही, तो आज ही दे डालिए. आजकल का तो ये फॅशन बन गया है. विश्वास नही होता तो फेसबुक खोलकर देखिए या फिर किसी स्कूल या कॉलेज जाने(पढ़ने)वाले छात्र से उसकी राय मांगिए. आप कहेंगे कि मैं ग़लत नही था. कोई बँटवारे के लिए ज़िम्मेदार ठहराता है तो कोई दंगे के लिए. हिंदू कहते हैं कि मुसलमानों का साथ दिया तो मुसलमान हिंदू समझकर साथ छोड़ देते हैं. सवर्ण दलितों का साथ देने की तोहमत लगाते हैं तो दलित धोखा देने की. अरे ये तो कुछ भी नही है. इस 80 साल के बूढ़े की वासना से भरी दास्तान भी आपने सुनी होगी!! क्या है ये ? क्या हो रहा है ये ? क्या इतना बड़ा कमीना था वो ?? हाँ वो कमीना था क्योकि (1) उसने अँग्रेज़ों की मुख़ालफ़त की थी, (2) उसने सत्य और अहिंसा जैसे ओपनिषिदिक सिद्धांतों की वकालत की थी, (3) हिंदू व मुसलमान को ऐक झंडे के नीचे लाना चाहा,(4) अछूतो को हरि का रूप कहकर गले लगाया, (5) एसे रामराज्य की कल्पना की कि जिसमे सबरी, निषाद और नाई सब बराबर थे. बहुत कुछ कहना है मुझे. पर कोई फायदा नही. तथाकथित शिक्षित लोगों, कभी आपने स्वयं अन्वेषण किया है इतिहास का. कभी देखा है कि हमारे धर्मग्रन्थ क्या कहते हैं. समय नही है आपके पास. तभी तो पके-पकाए प्रोपगंडा रूपी कॅप्सुल तुरत हजम कर लेते हैं.(George Oewel- "Political language is designed  to make lies sound truthful and murder respectable, and to give appearance of solidity to pure wind")    बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वयं अद्धययन और मनन तो कीजिए. यही आपकी सबसे बड़ी देशसेवा होगी.