Translate

रविवार, 30 दिसंबर 2012

संघों और संघटनों से आशा


            कहना प्रासंगिक हो चला है कि अब देश में पुनः सामाजिक सुधारकों और सांस्कृतिक संघटनों की आवश्यकता बढ गई है. आज़ादी के बाद बहुत कुछ बदल चुका है. पर अगर पूछा जाये तो सबसे ज्यादा बदलाव जनता की मानसिकता में दिखता है.
भारत का स्वतंत्रता संघर्ष विश्व के पटल पर अप्रतिम स्थान रखता है. शायद ही किसी देश के स्वतंत्र्य संघर्ष में राजनीतिक और सामाजिक सुधार एक साथ चले हों. लगभग हर नेता की दो भूमिकाएं थी, कुछ आरंभिक उदारवादिओं को छोड़ दें तो. तिलक, गाँधी, सुभाष, अम्बेडकर, आज़ाद, मालवीय जी आदि राजनीति के स्तंभ तो थे ही, सामाजिक सुधारों में भी संलग्न थे. अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराएं जो समाज के मुद्दे पर एक हो जाती थी. राजनीतिक जागरण ने सामाजिक सुधारों की पहल की, या सामाजिक सुधारों ने राजनीतिक समझ बढ़ाई, कुछ कहा नहीं जा सकता. शायद दोनों नें एक दूसरे को आगे बढ़ाया. इन महान नेताओं की फ़ौज़ ऐसे ही न निकली थी. इनके पीछे रामकृष्ण मिशन, आर्य समाज और सत्यशोधक समाज जैसे संघटनों का योगदान था जिन्होने समाज सुधार और स्वाधीनता को धर्म से जोड़ दिया. चरित्र-निर्माण इन संघटनों का एक आधारभूत विषय था. काफी बाद में आये राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इस चरित्र-निर्माण और अनुशासन को अपना एक कर्तव्य माना.
आज़ादी के बाद यह लय खो सी गई. अब समाज सुधारक और राजनेता अलग-अलग होने लगे. दरअसल सांसद ऐसे-ऐसे लोग बनने लगे जो राष्‍ट्रीय आन्दोलनों के जोश की पैदाइश थे और जिनका इन संघटनों से कोई सम्बंध न था. चरित्र गिरा, भ्रष्टाचार बढ़ा, राजनीति में और उसका अनुकरण करनेवाले समाज में भी. यह और कुछ नहीं, इन संगठनों की विफलता ही थी जो युवा-वर्ग को अपनी ओर आकर्षित न कर पाने का कारण बनी. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि सम्पूर्ण देश में अपनी पहुंच के बावजूद राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस कार्य में असफल रहा है. शायद इसके अतिवादी रूप के आगे इसका यह चेहरा ओझल हो गया है. साधारण व्यक्ति भी इसे अब इसी रूप में देखता है. समाज-सुधार के नाम पर पार्क में बैठे युगलों को पीटना समस्या का समाधान नहीं. इससे तो वो और दूर छिटक जायेंगे.
वैश्विकरण और बदलती जीवन शैली ने इस समस्या को और विकट बना दिया. लोगों के आदर्श बदलने लगे. सुभाष का स्थान सलमान ने ले लिया. धार्मिक किताबों के स्टाल पर रंगीन किताबें सज गईं. सन्नी लीयोन और पूनम पाण्डेय को रानी लक्ष्मीबाई से ज्यादा लाइक मिलने लगे फेस बुक पे.  एक बात और कहना चाहूंगा. वैज्ञानिक प्रगति और इंटरनेट के बढते प्रयोग ने जहाँ नई नई सुविधाएं प्रदान की हैं, वहीं इनके दोषों को नकारा नहीं जा सकता है. पिछले 10-15 वर्षों में बलात्कार की घटनाएं बढी हैं. यह वही समय है जिसमें इंटरनेट का प्रयोग बढ़ा, यह वही समय है जिसमें परम्परागत बड़े कॅसेट्स को सीडी ने प्रतिस्थापित कर दिया. सारा मार्केट इन पाइरेटेड सीडी से भरा पड़ा है......इसने घर-घर तक पॉर्न को पहुँचा दिया. कुछ लोगों पर शायद इस पॉर्न का असर न होता हो, पर बहुतों के लिये यह वासना भड़काने वाला ही सिद्ध हुआ है. हमारे गिरते चरित्र का एक और सबूत-एमएमएस. इन पॉर्न और एमएमएस में बलात्कार वाले दृश्य रहते ही होंगे.
न ही सरकार और न ही कोई संगठन इस समस्या को दूर करने का प्रयास कर रहा है. इसके परिणाम भविष्य में घातक सिद्ध होने वाले है.
ठीक उसी तरह बिग बॉस जैसे गालिओं से भरे रिलिटी शो के हम आदी होने लगे हैं. अब तो हमें यह सब नॉर्मल लगने लगा है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बनती द्विआर्थी फिल्में अब हमारे जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं.
समाज एक दिन में नहीं बना है और न ही बनता है. कुछ बातें हैं, जिन्हें हमें बढ़ने नहीं देना चाहिये, नहीं तो समाज का हिस्सा बनते उन्हें देर न लगेगी.
नैतिक साहित्य को पाठ्यक्रम में डालना होगा. पर यहाँ भी राजनीति हो चुकी है. मध्य प्रदेश में गीता के कुछ अंशों को पाठ्यक्रम में डालने का पुरजोर विरोध किया गया धर्मनिरपेक्षता के नाम पर. वो अंश नैतिक थे, धार्मिक नहीं. भई सारे धर्मों की अच्छी बातों को डाल दो.
अंत में यही कहना चाहूंगा कि सरकार तो पहल करे ही इन विकट होती समस्याओं के निवारण हेतु, सामाजिक व सांस्कृतिक संघटनों का सहयोग भी अति अपेक्षित है. बल्कि यदि यह कहा जाये कि इन्हीं पर भविष्य के भारत का चरित्र निर्भर है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी.

रविवार, 9 दिसंबर 2012

बैंगन पुराण


बैगन, नाम ही काफी है दहशत फैलाने के लिये. खाने की थाल में देख कई अच्छों के पसीने छूट जाते हैं, कई रुआंसे हो जाते हैं. बैंगन इनके लिये आतंक का पर्याय बन चुका है. हाँ, कई वीर ऐसे भी हैं जिन्हें खतरों से खेलना अच्छा लगता है. निश्चय ही यह बैंगन उन्हें प्रिय है.

नाम कई, आकार कई, प्रकार कई. कोई बैंगन कहता है, तो कोई भंटा. कभी गोलाकार होता है तो कभी लम्बाकार. छोटे बड़े सभी आकारों में उपलब्ध है यह बैंगन. बहुलता और प्रचुरता इतनी कि यदि एक बैंगन पुराण भी लिखा गया होता तो कम होता. हमने बहुत खोजा, तलाशा कि कहीं ऋषिओं द्वारा कुछ लिखा मिल जाये, पर असफलता ही हाथ लगी. जब किसी पादप-विज्ञानी ने बताया कि बैंगन का उद्गम स्थल भारत नहीं है, तब कोई साहित्य नही मिलने का मसला समझ में आया. सोंचा कि मैं ही यह महत कार्य कर लूँ. आखिर देश और समाज के प्रति कुछ कर्तव्य तो बनता ही है. बैंगन के पौधे पर धागे लपेटकर और एक गोल बैंगन (भंटा) पर टीका और अगरबत्ती सजाकर मैने अपना लेखन श्रीगणेश किया.

एक साल हो गये. आज लग रहा है कि लेखन कार्य संपन्न होने को है. यह एक साल बड़ी ही भाग-दौड़ में गुजरा. किस्मों की तलाश में कश्मीर से कन्याकुमारी तक भ्रमण किया. जगह-जगह किसानों, विक्रेताओं और उपभोक्ताओं के साक्षात्कर भी लिए. सचमुच आज मुझे अपने माता-पिता पर गर्व हो रहा है क़ि उन्होने मुझ जैसे लाल को जन्म दिया.

दरवाजे पर आहट हुई. पूछा कौन ? खोला. देखा शर्मा जी खड़े हैं. शर्मा जी एक अमेरिकन बहुराष्ट्रीय कंपनी कॉनसेंटो के भारत प्रमुख हैं. समाज में उठना-बैठना कम है पर अक्सर हमारे यहाँ आना-जाना लगा रहता है. भई लोगों को आजकल मरने की भी फुर्सत हो या न हो, हाथ दिखाने और कुंडली बनवाने का समय निकल ही जाता है.  इधर-उधर की बातें हुईं. बड़े ही चिंतित थे आज. बोल रहे थे कि उनका ओर उनकी कंपनी के भारत में भविष्य का फैसला होनेवाला है कल. मैने कुंडली देखी और और लिखकर दिया कि भगवान के घर देर है अंधेर नहीं. बेचारे और व्यथित हो गये. अब मैने पूछ ही दिया-क्या बात है ?

शर्मा जी- आज सुप्रीम कोर्ट में बीटी बैंगन पर फैसला आने वाला है. अब चौंकने की बारी मेरी थी. बीटी बैंगन, यह क्या बला है. मुझे अपने बैंगनाचार्य होने का सारा अहम मिट्टी में मिलता दिखाई देने लगा. ओह, इधर एक वर्ष की भाग-दौड़ ने मुझे खबरों से कितना दूर कर दिया था. खैर. शर्मा जी तो चले गये पर हमारे जेहन में सवालों की झड़ी लगा गये.

मैने अपने एक पत्रकार मित्र के घर धावा बोला. अप्रत्याशित आक्रमण से अचंभित बन्धु ने मुझे प्रेम से सारी कहानी सुनाई. अब कहानी सच है या झूठ, कितना नमक मिर्च मिला है, मुझे नही पता. मैं इसे यथावत आप लोगों से समक्ष रख रहा हूँ.

कॉनसेंटो एक बहुराष्ट्रीय अमेरिकन कंपनी है. कृषि के क्षेत्र में इसकी धाक है. कई वर्षों से भारत में अपने पेर जमाने की कोशिश कर रही है. पर अफसोस अमेरिका के सहयोग के बावजूद इसे मनचाही सफलता नहीं मिली. इसने भारत में जैविक रूप से संवर्धित (जेनेटिकली मॉडिफाइड) अर्थात जीएम फ़सलों को बाज़ार में उतारने का फैसला किया. हालांकि यह ऐसा पहले भी कर चुकी है और कुछ सफलता के दर्शन भी हुए हैं, पर भारत जैसे विशाल देश में यह काफी न था. सर्वे किया तो पता चला कि भारतीय बैंगन बहुत उगाते और खाते हैं.

 इस बिंदु पर मेरा शोध कॉनसेंटो के सर्वे से बिल्कुल मैच कर रहा था. स्वतः मेरी सहानभूति कॉनसेंटो के साथ जुड़ गई. कॉनसेंटो "बैंगन का ताड़नहार". हूँ, अच्छा रहेगा. मैने अपने महाकाव्य के एक अध्याय का नाम सोंच लिया. साथ में यह अंदेशा भी लगने लगा कि कहीं मेरी वर्षों  की मेहनत कॉनसेंटो वालों ने उड़ा तो न ली. 

बन्धु ने टोका-प्रसन्न जी, कहाँ खो गये ? 

बन्धुवर बता रहे थे कि किस तरह यह बीटी बैंगन बना. करीब छह महीने लगे इसमें. बनना तो कठिन था पर उसे भारत के बाज़ार में उतारना और भी अधिक कठिन. इस अद्भुत बैंगन की खूबी यह थी कि इसमें कीडे नहीं लगते थे.

कंपनी में ब्रह्मास्त्र चलाया और अमेरिका ने भारत पर दबाब बनाना शुरु किया. इतने से भी काम न चला तो कई मंत्रिओं के खाते में चंदा देकर अपनी कॉर्पोरेट रेस्पॉन्सिबिलिटी निभाई. इन्हीं सत्‍प्रयासों का फल था कि इस नायाब बैंगन कोसरकार ने बाज़ार में उतारने का फैसला कर ही लिया.

कीटनाशक उद्योग में खलबली मच गई. कीट प्रतिरोधी बैंगन उनके सारे कीटनाशकों का भट्ठा बैठा देता. कई कीडे तो खुद इनकी देन थे. अब करें तो क्या करें ? सरकार इनके विपरीत दिशा में बह रही थी. अंत में इन्होने गैर सरकारी संगठनों के चम्पू का सहारा लिया. कैसे लिया यह मत पूछिये. देश भर में विरोध होने लगा. पर्यावरणविद अलग ही विरोध में थे.

कुछ वैज्ञानिक विरोध में थे और कुछ साथ. दरअसल जो कॉनसेंटो के प्रॉजेक्ट पर काम कर रहे थे, उनका साथ देना तो लाजमी था. पर्यावरणविदों ने बिना किसी पूर्व-परीक्षण के इसे उपयोग में लाये जाने का प्रतिकार किया. कॉनसेंटो ने इसके जबाब में अपने दो साल के बैंगन प्रॉजेक्ट का चर साल के परीक्षण का डाटा प्रस्तुत कर दिया. भले ही यह परीक्षण भारत में न किये गये हों.

अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट गया. गैर सरकारी संगठनों ने इस सरकारी बैंगन और सरकार पर केस ठोक डाला.

यही थी अब तक की कहानी.
आम आदमी की तरह बैंगन भी राजनीति का शिकार हो गया. इसकी हालत कुछ-कुछ हमारे देश सरीखी हो गई है. अमेरिकी दबाब को भी झेला है इसने. इसे राष्‍ट्रीय सब्जी कहना गलत न होगा.

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया. दस साल तक परीक्षण के बाद ही कोई जैविक संवर्धित फसल उपयोग में लाई जा सकती थी. कीटनाशक उद्योग दिवाली माना रहा था.

किचन गार्डेन में बैठा बैंगन के पौधे को देखे जा रहा था. एक कीडा निकला. मुझे लगा कि मुस्कुरा रहा है. अचानक पत्ते से टपकी एक पानी की एक बूंद ने उसे वापस बैंगन के अंदर घुसने पर मजबूर कर दिया. सोंच रहा हूँ कि क्या मेरी हालत भी ऐसी ही हो गई है. कहाँ चला था बैंगन पुराण लिखने और कहाँ इस कीडे की तरह दस साल गुजरने का इंतज़ार कर रहा हूँ.

भविष्य क्या होगा पता नहीं. क्या नये-नये कीडे और पैदा होंगे ? क्या अमेरिकी बैंगन भारतीय देशी बैंगन का सफाया कर देगा ? इंपोर्टेड राष्‍ट्रीय सब्जी........

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

देश को मैंने क्या दिया?


एक प्रश्न उठा था जेहन में - देश ने मेरा क्या किया? देश ने मुझको क्या दिया? बात उस समय की है जब मैं अपने कुछ मित्रों के साथ आज से 5-6 साल पहले एक फिल्म देखने सिनेमा हॉल गया हुआ था. राष्ट्र गान से शुरुआत हुई. सभी उठ खड़े हुए. अचानक नजर पड़ी तो पाया कि एक बंदा बैठा आराम से पॉपकॉर्न के मजे ले रहा है. खैर राष्ट्र गान खत्म हुआ. देखा कि एक महिला उस युवक से झगड़ रही थी कि वह खड़ा क्यूं नहीं हुआ. उस युवक का एक ही जबाब था- मैं एक डॉक्टर हूँ और मुझे समझ में आता है कि मुझे क्या करना है. बात आगे बढी तो उस युवक ने एक प्रश्न दागा-देश ने मुझको क्या दिया जो मैं खड़ा हौऊं. खैर तबतक फिल्म शुरु हो चुकी थी और सब सब शांत होकर देखने में मशगूल हो गये. सवाल एक वाक्य का है पर आग लगा देनेवाला है.
देश को अगर हम विधि और विधान से जोड़ते हैं तो राज्य की अवधारणा सामने आती है और राज्य के चार अवयवों में से एक है जनसंख्या अर्थात हम. इसका अर्थ एक ही निकलता है कि राज्य के निर्माण की जिम्मेदारी हमारी भी है. हमने क्या किया? क्या यह पूछना उचित रहेगा उस डॉक्टर की तरह जिसको डॉक्टर बनाने पर 80% व्यय सरकार का है, जिसने मात्र 5000-10000 सालाना फीस देकर लाखों की पढ़ाई देश को दोष देते हुये निकाल दी और जो अपनी आगे की जिंदगी किसी निजी अस्पताल या अपने निजी क्लीनिक पर मोटी फीस ऐंठ कर गुजारनेवाला है? संविधान ने सबको बराबरी का हक दिया है. सबको समान अधिकार है आगे बढ़ने का. फिर भी कुछ लोगों का कहना है कि उनके धर्म के लिये, उनकी जाति के लिये देश ने अभी तक कुछ नहीं किया. फिर प्रश्न उठता है कि करेगा कौन? क्या ये आप नहीं हैं? लोगों का और मेरा भी कहना है कि नेता भ्रष्ट हैं. कह देना बहुत ही आसान है. पर ये नेता कौन हैं? हम ही तो, हमारे ही भाई-बंधु तो. हममें ही छुपे हुए लालच को जब एक बड़ा मंच मिल जाता है तो वह घोटालों के रूप में अवतरित हो हमारी ही क्षुधा को तृप्त करता है. बात कुछ यूँ है कि हमें अपने द्वारा किये गये छोटे-छोटे 100...1000 की बेईमानी नहीं दिखती और करोड़ों के बड़े घोटाले आँखों के सामने ताण्डव करते नजर आते हैं. इस स्वतः उत्पन्न लोभ के रस से आह्लादित हम फिर भी यही कहते हैं कि देश ने हमारे लिये क्या किया .
अपने समाज की दुर्दशा से ज्यादा हमें मंदिर-मस्जिद के मुद्दे ज्यादा प्रियकर लगते हैं. हम धर्म के नाम पर लाखों की भीड़ का हिस्सा बन सकते हैं, पर जब कोई देशहित की बात कर रहा हो तो उसके साथ रहे 2-4 की टाँगें खींचना अपना कर्तव्य समझते हैं. हमें धर्म देश से ज्यादा प्यारा है फिर भी हम धर्म के बजाय देश से पूछते हैं कि देश तुमने मुझको क्या दिया?

हम नहीं चाहते कि हमारे ही पिछड़े भाई हमारी जगह पर बैठें और हम यह भी नहीं चाहते कि किसी योग्य को उसका स्थान मिले. हमें देश से उम्मीद है कि वह हमारे लिये कुछ और करेगा जबकि हम स्वयं किसी की उम्मीद पर कुंडली मर बैठे हैं.

हम राजनीति को गंदी कहते हैं और उसमें जानेवाले को भ्रष्ट. पर उसी राजनीति को ओर अपने स्वार्थ के लिये पूजते हैं. कहते हैं कि इन नेताओं ने देश का बेड़ा गर्क कर दिया और फिर भी उन्हीं को चुनकर ताज पहनाते हैं.

बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी. एक ही प्रश्न सारी बातों का उत्तर है. देश हमपर निर्भर है या हम देश पर? देश को हम बनाते हैं या देश हमें? देश ने हमें क्या दिया या फिर हमने देश को क्या दिया? मेरी समझ में ये ज्वलंत प्रश्न किसी की जिंदगी को बदल डालने की क्षमता रखते हैं, कोई खुद से पूछकर तो देखे.

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

नोबेल पुरस्कार 2013 भारत को


सन 2013, नोबेल पुरस्कारों की घोषणा का महीना चल रहा था. भौतिकी, रसायन शास्त्र, चिकित्सा इत्यादि में मिले नाम विश्व-पटल पर चुके थे. एक दिन अर्थशास्त्र के नाम की उद्घोषणा भी हो गयी.
कल
रात के 12 बजनेवाले थे. दिन भर की थकान के बाद हमारे श्री सुनसोहन सिंह जी सोने की तैयारी में जुटे थे. बिस्तर पर गये ज्यादा देर भी हुई थी कि दूरभाष यंत्र ने बांग लगा दी. अनमने हो उठे तो पाया कि सचिव महोदय फोन पर थे. कहा कि ओबामा जी लाइन पे बने हैं.
हदकरी जी अभी-अभी लौटे थे. अजपा(आर्यावर्त जनता पार्टी ) की वार्षिक राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक थी. अधिक करमुक्त सम्पत्ति के मामले में फँसे बाबा कामदेव को समर्थन देते रहने का फैसला सर्वसम्मति से लिया गया था. समाचार देखने के लिये टी वी. चालू किया. ब्रेकिंग न्यूज़ थी.
बाबा कामदेव थोड़े मोटे हो गये थे. योग और भोग का तारतम्य थोड़ा गड़बड़ा गया था. चिंता ने गीता का स्थान ग्रहण कर लिया था. सी.बी.आइ. की सर्पकुंडली में फँसे बाबा का डंसे जाना अब वक्त दो वक्त की ही बात थी. अचानक स्वामी कालतृष्ण की आवाज आई.
नृपेंद्र धोदी तीसरी बार चुनाव जीत चुके थे. कल उन्हें दूसरे प्रदेश में चुनाव प्रचार के लिये जाना था, शायद इसलिये सवेरे ही निद्रा के अंक में समा चुके थे.
कोमलयम और कायावती के समर्थकों में आज मार-पीट हो गयी थी. आरोपों-प्रत्यारोपों के दैविक दौर के बाद दोनों अपने-अपने शयन कक्ष में जा चुके थे. दोनों की सी.बी.आइ. वाली चिरंतन समस्या का तात्कालिक समाधान केन्द्र सरकार ने कर दिया था. अतः समय काटने चर्चा में बने रहने के लिये ये दैविक दौर वक्त की माँग बन गये थे.
तमता सरजी ने कंगाल प्रदेश में कार्टून अधिनियम लागू कर दिया था. एफ.डी.आइ. के मसले पर बुरी तरह मात खाने के बाद फिलहाल किसी मुद्दे की तलाश में थी.
आतिश कुमार जी सुखाड़ प्रदेश पर वर्ल्ड बैंक की सुप्रचारित टिप्पणी से आजकल बहुत खुश चल रहे थे क़ि उनके आवास स्थल पर कूड़ा डालने की घटना ने उनका मन उद्वेलित कर दिया. धोदी जी पर वो जरा और तीक्ष्ण हो गये थे, जिसके कारण यदा-कदा आजपा की ओर से भी जबाब मिलने लगे थे.
आग लागरे ने सरेआम सुखाड़ प्रदेश को मरुस्थल की संज्ञा दे डाली थी और कहा था कि मरुस्थली कांटे को ज्वारभाटा प्रदेश से निकाल फेंको. भाषाओं का समन्वय भी अच्छा रहा जब हिन्दी मीडिया ने आग जी के अपने पर तोहमत लगाने वाले मराठी संवाद को जी भर कर दिखाया
करुणाबधी और गरलगलिता के चिरपरिचित चिरंतन खेल चालू थे. विगत आद्रा सास मुनिया के प्रताप से अब राज्य सभा की शोभा बढ़ा रहे थे. बाहुल आंधी, साले साहब अभी भी युवा दल के नेता बने हुये थे.
बजरिवाल अभी भी जागे हुये थे. कल स्वयं अन्ना की पोल खोलने का दावा किया था, जिससे समस्त राजनीतिक दलों में खुशी का माहौल बन पड़ा था. विगत एक साल में कइयों की पोल खोलनेवाले बजरिवाल किसी को भी सजा दिला पाये थे.
 अन्ना ने मौन व्रत रखा हुआ था
आज सुबह
सुबह उठते ही सुनसोहन सिंह जी ने अपने सचिव को झाड लगाई कि कुछ भी पता नहीं रखते हो. खैर अब सारे देश को पता चल चुका था. पुरस्कार विश्व स्तर पर बढ़ती मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने के लिये सिंह साहब द्वारा प्रस्तुत एक फॉर्मूले पर दिया गया था. फॉर्मूले की संकल्पना थोड़ी पुरानी थी, पर सही समय पर सही प्रस्तुति और उपयोगिता ने इसे प्रकाश में ला दिया. जी हाँ यह फॉर्मूला था भ्रष्टाचार का जिसने मुद्रास्फीति के दौरान रुपये की बढी मात्रा को सिर्फ सीमित किया , अपितु रुपये की उर्घ्वगामी गतिशीलता को मँहगाई के सानिध्य में फिर से बाज़ार में उतार दिया. विश्वव्यापी मंदी जिसने कुछ सालों पहले भारत में भी स्थान बनाया था, इस ब्रम्हास्त्र को सह पायी. भ्रष्ट्राचार का यह बाज़ार-नियन्तक स्वरूप इससे पहले अंजाना था.
हमारे बिगविजय सिंह जी ने प्रेस में बयान दे डाला. उन्होने एक 1000 वर्ष पुराने ग्रंथ भ्रष्टाचार शास्त्र से कुछ श्लोक उधृत करते हुये कहा कि सुनसोहन जी ने पृष्ठ संख्या 45-46 से इसकी प्रेरणा ली है. किताब आउट ऑफ स्टॉक हो गई.
आजपा ने सुनसोहन जी को बधाई दी पर साथ में यह भी कहा कि इसका श्रेय सिर्फ वो लें, हमारा भी इसमें योगदान है. शायद हदकरी जी को डर लग रहा था कि कहीं रॉंगरेस पार्टी इसका फायदा आसन्न चुनाव में उठा ले. धोदी जी ने इसे आलूमार्ट कंपनी का षड्यंत्र बताया. कमलायम जी और कायावती जी ने हमेशा की तरह मुख सामने और अंगुली पीछे इंगित करते हुये कहा कि हम आपका विरोध करते हैं. वामपंथिओं ने पुरस्कार की राशि को भारत में विदेशी पूँजी का आगमन बताया और कहा कि हम किसी भी तरह की विदेशी पूँजी का भारत में प्रवेश का विरोध करते हैं. कालू कालव जी ने आतिश कुमार जी की तरह सुखसोहन जी को बधाइयाँ दी और सुखाड़ सूबे पर भी अपनी दृष्टि फिराने का आग्रह किया. आग लागरे जी को इन सब बातों से कोई मतलब नहीं था और उनका पुराना रेडिओ अब भी चालू था. करुणाबधी गरलगलिता भी अपनी ही दुनिया में मगन थे.
कामदेव बाबा ने रात को ही बिगविजय सिंह जी के माध्यम से ही रॉंगरेस आलाकमान तक बधाई रूपी डिब्बे में अपनी वेदना पहुँचा दी थी. बजरिवाल ने बयान दिया कि यह पुरस्कार गलत हाथों को दिया गया है और इस बात के लिये वो स्विट्ज़र्लॅंड स्थित न्यायालय जायेंगे. भसीम त्रिवेदी के कार्टून इसबार अल्फ्रेड नोबेल के उपर बने हैं. तमता सरजी ने इस बार बजरिवाल का साथ देने का फैसला किया.
देशी विदेशी दोनों मीडिया ने इसे भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि बताया और सुनसोहन सिंह जी को सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री.
अन्ना का मौन व्रत अभी भी चल रहा था. 

कुछ दिन बाद
सुनसोहन सिंह जी ने पुरस्कार ग्रहण किया. रॉंगरेस पार्टी ने इसी बात को मुद्दा बना कर चुनाव लड़ा. पर हार गई. आजपा ने अपने सहयोगी दलों के साथ सत्ता ग्रहण की.
कामदेव बाबा भी जीतकर संसद पहुंचे. उन्होने खुलेआम घोषणा की कि वो कोई पद नहीं लेंगे. इसके एवज में नयी सरकार ने उनकी श्रद्धांजलि केन्द्र को फिर से कर में रियायतें प्रदान कर दीं. 
सुनसोहन सिंह जी को सर्वश्रेष्ठ सम्मान आर्यावर्त रत्न प्रदान किया गया. सुना जाता है कि धर्मवाणी जी ने उनकी अनुशंसा की थी. बजरिवाल अब भी लोकपाल के लिये लड रहा है. भारत अगेन्स्ट करप्षन पर लगा प्रतिबंध जो कि पिछली सरकार ने लगाया था, अब भी नहीं उठा है. भसीम त्रिवेदी आजकल रिलिटी शो में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं.
अन्ना का मौन व्रत अभी भी चल रहा है.
 नोट- किसी भी जीवित या मृत से इस लेख की समानता मात्र एक संयोग कही जायेगी.