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शुक्रवार, 24 मार्च 2017

औपनिवेशिक विज्ञान

1923 में एक कमिटी बनी थी-मोहम्मद उस्मान कमिटी। यह मद्रास इन्क्वायरी कमिटी के नाम से जानी जाती है। 
इस कमिटी ने पारंपरिक स्थानीय मेडिकल प्रैक्टिशनर के पक्ष को "साइंटिफिक" यूरोपीय एलोपैथिक प्रणाली के समक्ष प्रश्नोत्तर शैली में खड़ा किया था। 
"यदि हम अपने चिकित्सा विज्ञान के बारे में बात करते हैं तब वो आश्चर्यचकित होकर पूछते हैं कि क्या ऐसी भी कोई चीज है ? बजाय इस सवाल के यह सहमति आवश्यक है कि हिन्दू भी "आदमी" होते हैं और वो भी एक मजहब रखते हैं , एक भाषा रखते हैं, एक विज्ञान जानते हैं और एक प्राचीन सभ्यता के वंशज हैं । "

यह उस्मान कमिटी की रिपोर्ट के अंश हैं।
सवाल अहम् है। विज्ञान औपनिवेशीकरण का एक सशक्त माध्यम रहा है। तत्कालीन यूरोपीय वैज्ञानिक सोंच ने भारतीय आयुर्विज्ञान को अवैज्ञानिक माना क्योंकि वह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध नहीं थे, उनका पेटेंट नहीं हुआ था। 
प्रतिक्रिया हुई। कुछ लोगों ने यह प्रयास किया कि वैद्यगिरी और हकीमगिरी को यूरोपीय "वैज्ञानिक" चिकित्सा प्रणाली के समक्ष वैज्ञानिक सिद्ध किया जाए। इन लोगों ने यह कहा कि आर्युर्वेदिक प्रणाली स्थानीय और विशेषतः निर्धन जनता के लिए अधिक उपयुक्त है। उन्होंने यह तर्क दिया कि उनको उपचार के लिए आइसबर्ग ,थर्मामीटर, बार्ली, माल्टेड मिल्क ,चिकन की आवश्यकता नहीं ,वह अपने घर के पिछवाड़े में जन्मने वाले पौधे से उपचार करने में सक्षम हैं। 
यह तर्क तत्कालीन साइंटिफिक सोंच को मान्य न हो सका। आज भी नहीं होगा। वह मानने के लिए ही तैयार नहीं थे कि इस " ग्रामीण संस्कृति" में विज्ञान नाम की कोई चीज भी हो सकती है। और इसमें सहयोग किया तत्कालीन मध्यम वर्ग ने। 
प्रतिक्रियाएं कई तरह की हुईं। एक ऊपर लिखी है। दूसरी इसी का विस्तार है। पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों ने स्वयं को वैज्ञानिक दिखाने के लिए प्रयास करने शुरू कर दिए। उनका ध्यान चिकित्सा से हटकर स्वयं को सिद्ध करने में ही अटक गया। आगे की प्रगति रुक गई और वह एलोपैथिक प्रणाली के इशारे पर नाचनेवाले बनकर रह गए। यह पराभव का निम्नतम स्तर था जब नई खोजें रोगों के निदान हेतु न होकर उनको वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए की जाने लगीं। ।
गांधी का जिक्र आवश्यक है क्योंकि वही एक थे जिन्होंने इस प्रवृत्ति को पहचानकर तत्कालीन चिकित्सा प्रणाली को नकारते हुए प्राकृतिक चिकित्सा को अपनाने की सलाह दी। हिन्द स्वराज में तो वह भारत के डॉक्टरों को अभिशाप मानते हैं। 
खैर, बात महत्वपूर्ण यह है कि विदेशी hegemonic science ने स्थानीय साइंस को बेकार सिद्धकर अपने को स्थापित किया। स्थानीय प्रणाली भी प्रतिक्रियावश भ्रष्ट हो गई। उसे अपने को सटीक सिद्ध करने के बजाय अपने को वैज्ञानिक सिद्ध करने में अधिक रुचि होने लगी थी। सिद्ध करने की जरुरत ही क्या थी ? 
समय सबको बदलकर रख देता है।

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